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बुधवार, 19 सितंबर 2012

गाहे गाहे इसे पढ़ा कीजे ...


प्रेम को जानने के लिए आसक्ति होनी चाहिए, जुनून होना चाहिए, उसमें डूबे रहना चाहिए . प्रेम और भगवान्‌ को एक ही तत्व माना जाता है ...
प्रेम कभी भी शरीर की अवधारणा में नहीं सिमट सकता ... प्रेम वह अनुभूति है जिसमें साथ का एहसास निरंतर होता है ! न उम्र न जाति न उंच नीच ... प्रेम हर बन्धनों से परे एक आत्मशक्ति है , जहाँ सबकुछ हो सकता है .
कुछ पुराने कुछ नए - प्रेम के हर ढंग नए -
कवि पन्त की प्रेम अभिव्यक्ति आँखों के आगे एक हरीतिमा का निर्माण करती है,जिसकी हर लताओं से अगर की शाब्दिक खुशबू एक आध्यात्मिक सौंदर्य स्थापित करती है -
बाँध दिए क्यूँ प्राण प्राणों से
तुमने चिर अनजान प्राणों से ..
गोपन रह न सकेगी
अब यह मर्म कथा
प्राणों की न रुकेगी
बढ़ती विरह व्यथा
विवश फूटते गान प्राणों से
बाँध दिए क्यूँ प्राण प्राणों से
तुमने चिर अनजान प्राणों से ..
यह विदेह प्राणों का बंधन
अंतर्ज्वाला में तपता तन
मुग्ध हृदय सौन्दर्य ज्योति को
दग्ध कामना करता अर्पण
नहीं चाहता जो कुछ भी आदान प्राणों से
बाँध दिए क्यूँ प्राण प्राणों से
तुमने चिर अनजान प्राणों से ..’

महादेवी और प्रेम -जब सूक्ष्म एकाकार हो अनुभूतियाँ तो फिर प्रेम का परिचय क्या -
तुम मुझमें प्रिय, फिर परिचय क्या!

तारक में छवि, प्राणों में स्मृति
पलकों में नीरव पद की गति
लघु उर में पुलकों की संस्कृति
भर लाई हूँ तेरी चंचल
और करूँ जग में संचय क्या?

तेरा मुख सहास अरूणोदय
परछाई रजनी विषादमय
वह जागृति वह नींद स्वप्नमय,
खेल खेल थक थक सोने दे
मैं समझूँगी सृष्टि प्रलय क्या?

तेरा अधर विचुंबित प्याला
तेरी ही विस्मत मिश्रित हाला
तेरा ही मानस मधुशाला
फिर पूछूँ क्या मेरे साकी
देते हो मधुमय विषमय क्या?

चित्रित तू मैं हूँ रेखा क्रम,
मधुर राग तू मैं स्वर संगम
तू असीम मैं सीमा का भ्रम
काया-छाया में रहस्यमय
प्रेयसी प्रियतम का अभिनय क्या?...

हरिवंशराय बच्चन और सामीप्य की अनकही भावनाएं -
रात आधी खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।
फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में
और चारों ओर दुनिया सो रही थी
तारिकाएँ ही गगन की जानती हैं
जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी
मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे
अधजगा-सा और अधसोया हुआ सा
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
रात आधी खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।
एक बिजली छू गई सहसा जगा मैं
कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में
इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आँसू
बह रहे थे इस नयन से उस नयन में
मैं लगा दूँ आग इस संसार में है
प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर
जानती हो उस समय क्या कर गुज़रने
के लिए था कर दिया तैयार तुमने!
रात आधी खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।
प्रात ही की ओर को है रात चलती
औ’ उजाले में अंधेरा डूब जाता
मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी
खूबियों के साथ परदे को उठाता
एक चेहरा-सा लगा तुमने लिया था
और मैंने था उतारा एक चेहरा
वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने पर
ग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने।
रात आधी खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।
और उतने फ़ासले पर आज तक सौ
यत्न करके भी न आये फिर कभी हम
फिर न आया वक्त वैसा फिर न मौका
उस तरह का फिर न लौटा चाँद निर्मम
और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ
क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं--
बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो
रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने।
रात आधी खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।....

प्यार युगों से प्रवाहित गंगा,गोमती,गोदावरी....काश्मीर से कन्याकुमारी तक सुवासित, त्रिवेणी में अदृश्य सरस्वती की अद्वैत आभा... जिसने प्रेम न जिया हो,उसका जिया अनजिया रह गया समझो !
प्रेम तो खुद में व्याख्यायित है,उसकी क्या व्याख्या...तो बस प्रेम के कुछ ख़ास अनमोल कैनवस आपके लिए, जिसके हर रंग पुख्ता हैं - तो रखिये शब्द शब्द सीढ़ियों पर नर्म आँखें और गाहे गाहे इसे पढ़ते जाइये,क्योंकि इससे बेहतर कोई किताब नहीं ............
रवीन्द्र प्रभात - http://www.blogger.com/profile/11471859655099784046

ख़्वाबों की ताबीर तुम्हारी आँखों में है,
शोख़ जवाँ काश्मीर तुम्हारी आँखों में है।

तुझमें है ताबीर मोहब्बत की भीतर तक,
शायर गालिब-मीर तुम्हारी आँखों में है।

सुबहे काशी का मंजर ओ' शाम अवध का,
क्या सुन्दर तस्वीर तुम्हारी आँखों में है।

छलकाए अंगूरी नेह लुटाए हौले से,
राँझा की ओ हीर तुम्हारी आंखों में है।

ताजमहल का अक्स नक्श एलोरा का,
प्यार की हर जागीर तुम्हारी आँखों में है।
भरी उमस में पिघल-पिघल के बरसे जो,
हिमाचल की पीर तुम्हारी आँखों में है।

बूँद-बूँद को तरस उठे जो देखे बरबस,
राजस्थानी नीर तुम्हारी आँखों में है।

गोरी गुज़रती गुड़िया शर्मीली-सी,
सागर-सी गम्भीर तुम्हारी आँखों में है।

चाँद सलोना देख-देख के सागर झूमे,
गोया की तासीर तुम्हारी आँखों में है।

कान्हा नाचे रास रचाए छलकाए,
रोली-रंग-अबीर तुम्हारी आँखों में है।

तिरुपती की पावन मूरत सूरत-सी,
दक्षिण की प्राचीर तुम्हारी आँखों में है।

तमिल की ख़ुशबू कन्नड़-तेलगू की चेरी,
झाँक रही तदबीर तुम्हारी आँखों में है ।

खजुराहो की मूरत जैसी रची-बसी हो,
छवि सुन्दर-गम्भीर तुम्हारी आँखों में है ।

गीत बिहारी गए, बजे संगीत रवीन्द्र,
भारत की तकदीर तुम्हारी आँखों में है। ...

रंजना भाटिया - http://ranjanabhatia.blogspot.in/
काश मैं होती धरती पर बस उतनी
जिसके उपर सिर्फ़ आकाश बन तुम ही चल पाते
या मैं होती किसी कपास के पौधे की डोडी
जिसके धागे का तुम कुर्ता बना अपने तन पर सजाते
या मैं होती दूर पर्वत पर बहती एक झरना
तुम राही बन वहाँ रुक के अपनी प्यास बुझाते
या मैं होती मस्त ब्यार का एक झोंका
जिसके चलते तुम अपने थके तन को सहलाते
या मैं होती दूर गगन में टिमटिम करता एक तारा
जिसकी दिशा ज्ञान से तुम अपनी मंजिल पा जाते
यूँ ही सज जाते मेरे सब सपने बन के हक़ीकत
यदि मेरी ज़िंदगी के हमसफ़र कही तुम बन जाते !!...

संगीता स्वरुप - http://geet7553.blogspot.in/

याद है तुम्हें ?
एक दिन
अचानक आ कर
खड़े हो गए थे
मेरे सामने तुम
और पूछा था तुमने
कि - तुम्हें
गुलमोहर के फूल
पसंद हैं ?
तुम्हारा प्रश्न सुन
मैं स्वयं
पूरी की पूरी
प्रश्नचिह्न बन गयी थी ।
न गुलाब , न कमल
न मोगरा , न रजनीगंधा ।
पूछा भी तो क्या
गुलमोहर?
आँखों में तैरते
मेरे प्रश्न को
शायद तुमने
पढ़ लिया था
और मेरा हाथ पकड़
लगभग खींचते हुए से
ले गए थे
निकट के पार्क में ।
जहाँ बहुत से
गुलमोहर के पेड़ थे।
पेड़ फूलों से लदे थे
और वो फूल
ऐसे लग रहे थे मानो
नवब्याहता के
दहकते रुखसार हों ।
तुमने मुझे
बिठा दिया था
एक बेंच पर
जिसके नीचे भी
गुलमोहर के फूल
ऐसे बिछे हुए थे
मानो कि सुर्ख गलीचा हो।
मेरी तरफ देख
तुमने पूछा था
कि
कभी गुलमोहर का फूल
खाया है ?
मैं एकदम से
अचकचा गयी थी
और तुमने
पढ़ ली थी
मेरे चेहरे की भाषा ।
तुमने उचक कर
तोड़ लिया था
एक फूल
और उसकी
एक पंखुरी तोड़
थमा दी थी मुझे ।
और बाकी का फूल
तुम खा गए थे कचा-कच ।
मुस्कुरा कर
कहा था तुमने
कि - खा कर देखो ।
ना जाने क्या था
तुम्हारी आँखों में
कि
मैंने रख ली थी
मुंह में वो पंखुरी।
आज भी जब
आती है
तुम्हारी याद
तो
जीव्हा पर आ जाता है
खट्टा - मीठा सा
गुलमोहर का स्वाद।



वंदना गुप्ता - http://vandana-zindagi.blogspot.in/

दौड़ती भागती रही उम्र भर
तेरे इश्क की कच्ची गलियों में
लगाती रही सेंध बंजारों की टोलियों में
होगा कहीं मेरा बंजारा भी
जिसकी सारंगी की धुन पर
इश्क की कशिश पर
नृत्य करने लगेंगी मेरी चूड़ियाँ
रेशम की ओढनी पर
लगी होंगी जंगली बेल बूँटियाँ
और बजती होंगी किसी
मंदिर की चौखट पर
इश्क की घंटियाँ
स्वप्न के पार होगी कहीं
कोई स्वप्निली घाटियाँ
जिसके एक छोर पर
सारंगी बजाता होगा मेरा बंजारा
और दूसरे छोर पर
कोई रक्कासा की परछाईं
करती होगी नृत्य सांझ की चौखट पर
एक धूमिल अक्स झुक रहा होगा आसमाँ का
करने कदमबोसी इश्क की ..........
सुनो ............आवाज़ पहुंची तुम तक ?
मेरे ख्वाबों की चखरी पर
हकीकत का मांजा क्यों नहीं चढ़ता ?
ये आखिरी ख़त की भाषा
कोई रंगरेज क्यों नहीं समझता ?
शायद अब इश्क की बारातें नहीं निकला करतीं
जनाजों की धूम खामोश होने लगी है
तभी तो देखो ना ..................
मैंने जो पकड़ी थी एक लकीर हाथों से
उसके बस निशाँ ही हथेली पर पसरे पड़े हैं
मगर कोई ज्योतिषी बूझ ही नहीं पा रहा
इश्क का ज्ञान .............
देखो ना मेरी हथेली पर
सारी रेखाएं मिट चुकी हैं
सिर्फ इश्क की रेखा ही कैसे टिमटिमा रही है
फिर भी नहीं कर पा रहा कोई भविष्यवाणी
अब ये भविष्य वक्ता का दोष है या इश्क की इन्तेहाँ
जो बस सिर्फ एक रेखा का गणित ही
सवाल हल नहीं कर पा रहा
और देखो तो ............सदियाँ बीत गयीं
सुलझाते सुलझाते धागे की उलझन को
बालों में उतरी चाँदी गवाह है इसकी
जितना सुलझाने की कोशिश करती हूँ
जितना मौलवी से कलमे पढवाती हूँ
ताबीज़ गढ़वाती हूँ
ये नामुराद इश्क की रेखा उतनी ही सुर्ख हो जाती है
ना ना .........इश्क की रेखा हर हथेली में नहीं होती
और जिसमे होती है तो वहाँ
बस सिर्फ एक वो ही रेखा होती है
और मेरी हथेली की जमीन देखो तो ज़रा
कितनी चमक रही है
बर्फ की चादर बिछी है
जिसकी मांग सिन्दूर से भरी है
अमिट है मेरा सुहाग ......जानते हो ना
तभी तो दिन पर दिन
सुहागरेखा कैसे गहरा रही है
इसीलिए अब बंद रखती हूँ मुट्ठी को
कहीं नज़र ना लग जाए
वैसे तुम्हारी नज़र का
इन्तखाब तो आज भी है
मगर इंतज़ार के पुलों पर
ख्वाबों के बाँध बांधे तो
युगों बीत गए .........
क्या पहुँचा तुम तक
इंतज़ार -ओ-इश्क का जूनून
जानती हूँ नहीं पहुँचा होगा
तभी तो लहू का रिसना जारी है
यूँ ही इश्क का सुहाग अमर नहीं होता
जब तक ना दर्द का लहू रिसता
और फिर बंजारों की टोलियाँ
वैसे भी कब महलों की मोहताज हुई हैं
इश्क की चादरें तो बिना धागों के बुनी जाती हैं
और मेरी हथेली के बीचो बीच खिंची रेखा तो
लक्ष्मण रेखा से भी गहरी है , अटल है , तटस्थ है
जो इश्क की सुकूनी हवाओं की मोहताज नहीं
ओ मेरे इश्क के बंजारे ...........तू जहाँ भी है
याद रखना ...........एक दिन इश्क के जनाजे में ताशे तू ही बजा रहा होगा
और मेरा इश्क गुनगुना रहा होगा
रब्बा इश्क के पाँव में मेहंदी लगा दे कोई
इक शब की दुल्हन बना दे कोई ............
फिर भी कहती हूँ
यूँ इश्क के पेंचोखम में उलझना ठीक नहीं होता ...............जान की कीमत पर
क्योंकि
इंसानियत की रूह जब उतरती है
तब इश्क की दुल्हन अक्स बदलती है ...........और आइनों पर लिबास नहीं होते
देख लेना आकर क़यामत के रोज़ मेरी हथेलियों की सुर्ख रंगत ..........
जो किसी मेहंदी की मोहताज नहीं
फिर चाहे तेरे इंतज़ार की ही क्यों ना हो ............
इश्क का पंचनामा ऐसे भी हुआ करता है …………ओ मेरे बंजारे !!!!!!!!

संध्या शर्मा - http://sandhyakavyadhara.blogspot.in/

तरंग सरिता की
हिलोरें लेने लगीं
नयनो में
बांध भावनाओं का
फूट पड़ा
शिथिल कर गईं
पलकों को
भावहीन हवाएं
अंतस अनंत गहरा
घोर अँधेरा
मौन हूँ मैं
और तुम....!
बह रहे हो
झर-झर
इन नयनो से
झरने की तरह
क्यों ना तुम
भींच लो मुट्ठी
निचोड़ दो बादलों को
भर दो प्रणय सरिता
और मैं....!
समेट लूँ तुमको
मूंदकर पलकें....

सोनल रस्तोगी - http://sonal-rastogi.blogspot.in/
एक बात कहूं गर करो यकीं
ऐसा पहले कुछ हुआ नहीं
जैसा पल पल अब होता है
जैसा हर पल अब होता है
मैं जगते जगते सोती हूँ
और सोते से जग जाती हूँ
रातों को करवट लेती हूँ
ना जाने क्यों मुस्काती हूँ
अन्जानी सी सिरहन कोई
भीतर से अक्सर उठती है
जो कह देते हो बात कोई
क्यों मेरी आँखे झुकती हैं
जादू तो तुमने किया नहीं
ख़ामोशी मैं सुन लेती हूँ
गुमसुम सी मैं हो जाती हूँ
लगता है कुछ पा जाती हूँ
खुद जाने क्यों खो जाती हूँ
पूछूं गर तो सच कहना
प्यार यही तो होता है :-)

उषा राय - http://ushadr.blogspot.in/
शंख हो तुम !
तुम्हारे भीतर विराजता है एक समुन्दर ,
चांदनी बगल में लेट जाती है ,
इन्द्रधनुष सी बिखरती है हँसी,
परत दर परत झिलमिलाता है उजाला ,
कोमल बिजली सा कौंधता है रूप ,
ये तुम हो !
पूरी की पूरी शंख जैसी !!!...................

प्यार की चाँदनी कहो या चाशनी या चाँदनी में गिरती ओस की बूंदें- कहो या जियो...प्यार तो बस प्यार है
क्रमशः ...

16 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद सार्थक प्रयास ... आभार

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  2. प्रेम की दिव्य अनुभूति को अलग अलग रंगो मे अनुदित करने के लिये आपके आभारी हैं एक ही आकाश पर इंद्रधनुषी रंगो से सराबोर कर दिया………हार्दिक आभार

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  3. प्रेम शाश्वत है, प्रेम निश्छल है । प्रेम से बढ़कर कोई न दूजा ...कोई न पूजा । आज की बहुत सुंदर और सारगर्भित प्रस्तुति है । आभार मेरी गजल को स्थान देने हेतु ।

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  4. प्रेम की दिव्य अनुभूति का अहसास....बहुत सुन्दर

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  5. prem ka har rang meetha madhur ........:)shukriya meri rachna ko is mein jagah dene ke liye rashmi ji .

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  6. सचमुच प्यार तो बस प्यार है, जिसका हर रंग खूबसूरत होता है, ईश्वर का दिया वरदान या यूँ कहें की उसका दूसरा रूप है प्रेम... बहुत सुन्दर प्रयास है आपका इसके हर रूप से पहचान करवाने का.... स्थान देने के लिए बहुत-बहुत आभार...

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  7. सिर्फ एहसास है ये रूह से महसूस करो
    प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो!

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  8. प्रेम के अलग-अलग रंग समेटे, अनोखी व्याख्याएँ प्रस्तुत करती रचनाओं का अद्भुत संग्रह|

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  9. आज पहली बार देखा है ये ब्लॉग और फिर पहली कड़ी से पढ़ना शुरू कर रही हूँ. अब इस प्रयास के लिए क्या कहूं? शब्द ही नहीं है मेरे पास . प्रेम को इतने ढंग से इतने सारे लोगों के नजरिये से परिभाषित पर सामने आ रहा है. और आपको डैड देने का जी चाह रहा है.

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  10. प्यार ही प्यार बेशुमार !
    संग्रहणीय श्रृंखला !

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  11. वाह ! शब्दों से रचे हुए इस प्रेम की दुनिया में गोते खाना अद्भुत है !
    चयनकर्ता को कोटि धन्यवाद !

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