हिंदी का उत्थान चाहते हैं तो लिखने के साथ साथ सही मायनों में उसे पढ़ें भी .... आज भी हिंदी साहित्य अपने नौ रसों के साथ जिंदा है . लिखने से परहेज नहीं,तो पढ़ने से क्यूँ ! लिखिए,पढ़िए...जानिए उस कलम को,जिसमें परिवर्तन के बयार समाहित होते हैं .रोते जाना,चीखना,किसी को लक्ष्य बनाना .....सही नहीं,बेहतर है-खुद को मजबूत बनायें.समस्यायों की बन्द सांकलों को खोलते हुए मजबूती के मजबूत मंत्र दिए हैं अनवर जमाल ने http://auratkihaqiqat.blogspot.in/2012/09/blog-post_15.html
किसी अन्य के कहे को प्राथमिकता देने से बेहतर है खुद को जानें,खुद को समयानुसार बदलें...जितना भले के लिए है-उसे सुनें,जोव्यर्थ,अनर्गल प्रलाप है,उसे कूड़ेदान में ही डालें !
जो जैसा है- है, तो फिर हम भी वैसे ही रहें जो हम हैं.हिंसा के प्रत्युत्तर में हिंसा, अपशब्द के प्रत्युत्तर में हिंसा - निदान नहीं,बल्कि एक ज्वालामुखी की संरचना है .सुज्ञ जी ने एक गूढ़ तथ्य दिया है http://shrut-sugya.blogspot.in/2012/09/blog-post_14.html ये तथ्य अनुभवों की ठोस लकीरें हैं . कई लोग अपने बच्चों को सिखाते हैं कि कोई मारे तो पलटकर मारो....यह सीख देते हुए वे भूल जाते हैं कि यह पलटवार उनके साथ भी संभव है! संस्कारों का महत्व,मीठे बोल का महत्व हमेशा होता है. परिवर्तन इसी से होता है ...
हिंसा में इन्सां कहाँ
इन्सां नहीं तो सभ्यता कहाँ
असभ्य से सभी होने पर ही इन्सां आविष्कारक हुआ
असभ्यता तो सिर्फ पतन है ...
अन्याय से भयमुक्त होकर चलना है
तलवार उठाना तो लाशें गिरना है
और लाशों में निर्णय कहाँ !....
धर्म से जुडी कहानियों में बहुत कुछ ऐसा कह दिया जाता है, जिसकी व्याख्या उसके औचित्य पर प्रश्न उठाती है. कुछ ऐसे ही प्रश्न उठाये हैं कुलभूषण सिंघल ने http://awara32.blogspot.in/2012/09/blog-post.html की प्रासंगिक व्याख्याओं के मध्य .किसी भी बात को दोनों अर्थ में समझा जाता है,फिर एक निर्णय,एक मान्यता अपनी होती है ...
दुखों की श्रृंखला भले ही मनुष्य बनाये,पर दोषी ईश्वर होता है.प्रश्न उससे ही होते हैं, सही भी है- माता-पिता से ही तो अधिकारवश प्रश्न किये जाते हैं.एक प्रश्न सुधीर मौर्य का रिंकल के दर्द को लेकर http://sudheer-maurya.blogspot.in/2012/09/blog-post_13.html
प्रश्नों के इस दर्द में ईश्वर भी रोता है,अपने द्वारा रचित मानव की दुर्भावनाओं पर पश्चाताप करता है !
पढ़ाई के दरम्यान हम सब सोचते हैं-ओह कब गुजरेगा यह समय! पढ़ना-लिखना,...समय से उठो,क्लास जाओ,आओ-होमवर्क करो...पर जब समय बीत जाता है तो बस यादें यादें यादें...यादें रह जाती हैं . इन्हीं यादों की सजीव बानगी है मुकेश कुमार सिन्हा की http://jindagikeerahen.blogspot.in/2012/09/blog-post_15.html
ज़रूरी नहीं की हम जो पसंद करते हैं,सोचते हैं,गुनते हैं,गढ़ते हैं-उसे अभिव्यक्त भी कर सकें. जहाँ वह अभिव्यक्ति मिल जाती है,वह हमारी पसंद बन जाती है और उसे साझा करके ख़ुशी मिलती है...इसी ख़ुशी को साझा करते हैं इमरान अंसारी - ख़लील ज़िब्रान की अभिव्यक्तियों के साथ . तो मौका ना चुकें और पढ़ें http://khaleelzibran.blogspot.in/2012/07/blog-post.html
यही वास्तविकता है ...
कलियुग...जब शुरू हुआ था यह युग तो संस्कारों की साँसें चल रही थीं...धर्म का सम्मान था,रिश्तों का सम्मान था,अतिथि देवो भवः की भावना में सम्मान था...किसी के आने की ख़ुशी, किसी को कुछ देने की छोटी छोटी खुशियाँ बहुत मायने रखती थीं.बड़ा परिवार ही सही मायनों में सूखी परिवार था, झूठ-फरेब थे,पर अब तो यही शेष है ... गौर कीजिये रेखा श्रीवास्तव जी की इस विलक्षण रचना पर http://hindigen.blogspot.in/2012/09/blog-post_9692.html
कहीं धूप तो कहीं छाँव,किसी के घर रिमझिम,कोई बूंद पानी को तरसे....मौसम के रूप भी निराले हैं, कहते हैं रूपचंद्र शास्त्री जी
मृगतृष्णा कहो या तृष्णा
उपलब्धि मानो या घाटे का सबब
मैं हूँ और रहूंगी....क्योंकि सृष्टि मुझसे है
और मैं कर्त्तव्य से अलग न थी न हूँ न हो सकती हूँ ...
सर पर एक हाथ हो- इतनी छोटी सी उम्मीद
महँगी तो नहीं ... सरस दरबारी की अभिव्यक्ति रेगिस्तान में पानी का कतरा नहीं,पूरी नदी है . इक्षा स्रोत है,सुनामी भी है-इसी फर्क को समझना है
कहना है उस अभिमानी आकाश से
कि उसके विस्तृत दामन पर
जो गिनकर वक़्त बांटा है घड़ी ने
सूरज के बराबर ही हिस्सा है
उसमें सितारों का भी ......लो आकाश पर भी होड़ लग गई,धरती का भाप आकाश तक !तुलिका शर्मा ने किया है हिसाब - क्योंकि,
घुप्प अंधेरी रात के खेत में
बन्द आँखों से कल जो हमने
सितारों की फ़सल बोई थी
सुबह सूरज आकर रौंद गया है ...http://mankacanvas.blogspot.com/2012/09/blog-post_15.html
आइये हमने बीच खुशियाँ बाँटें,छोडकर शिकायतें कुछ पल जी लें- वरना एक दिन तो यही गाना है कि बिछड़े सभी बारी बारी ...
बिछड़ने से पहले आपस के एक गुण की चर्चा करें - निष्पक्ष भाव से,मैत्री का हाथ बढ़कर....
उम्मीद का सूरज कभी नहीं ढलता
अँधेरा कितना भी गहरा हो
रौशनी बनकर चलता है ...
बहुत ही खूबसूरत प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत प्यारे लिंक्स है दी.....
जवाब देंहटाएंसभी एक सांस में पढ़ गयी.....
हां कवितायें मुझे ज्यादा भाती हैं......
सादर
अनु
एक गुण की चर्चा hameshaa करें -
जवाब देंहटाएंनिष्पक्ष भाव से,मैत्री का हाथ बढ़कर ....
उम्मीद का सूरज कभी नहीं ढलता
अँधेरा कितना भी गहरा हो
रौशनी बनकर चलता है !!
रश्मिजी इस योग्य समझने के लिए, ह्रदय से आभार !!!!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छे लिक्स दिए है..बहुत खूबसूरत प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंरश्मिजी, आभारी हूँ अच्छे विचारोँ की व्याख्या प्रसारण के लिए.....
जवाब देंहटाएंसादर.
आपने यह अच्छी प्रेरणा दी है कि रोते जाना,चीखना,किसी को लक्ष्य बनाना .....सही नहीं . बेहतर है नफ़ाबख्श बनिए और लोगों के दिलों पर राज कीजिए.
जवाब देंहटाएंसभी लिंक्स सुन्दर और बढ़िया लगे.....खलील जिब्रान की पोस्ट यहाँ शमिल करने के लिए और उस पर इतनी सुन्दर व्याख्या के लिए दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आपका ।
जवाब देंहटाएंkhud ko yahan par pa kar dil khush ho gaya...
जवाब देंहटाएंachchhe links..
इतने सुन्दर लिंक्स में मुझे भी शामिल करने का शुक्रिया रश्मि जी
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