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शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

गाहे गाहे इसे पढ़ा कीजे ...3



लिखी नहीं प्रेम कविता
भला लिखी कहाँ जाती है 
यह तो चाँदनी है 
जो चाँद के दिल से झरती है 
लहरें हैं
जो समंदर के दिल से निकलती है
है चातक की चाह
पपीहे की आह
कोयल की कूक
दूरी में हूक 
छत पर नंगे पाँव की दौड़
परदे के पीछे की धड्कनें...
नहीं लगती भूख
सूखता है गला
पर बुझती नहीं प्यास 
प्यास बढ़ती है इक झलक पाकर
रूठने की नजाकत है
सामने आकर...
नहीं खुलते होठ
प्यार बयां नहीं होता 
प्रेम कहकर भी 
इसका इज़हार नहीं होता 
प्रेम-एक अनकही छुवन है
जिसकी आगोश से कोई जुदा नहीं होता ...
.........................................................................
गौर फरमाइए  कतील शिफाई की इन लकीरों पर ...
अपने हाथों की लकीरों में बसा लो मुझको,
मैं हूँ तेरा तो नसीब अपना बना लो मुझको।
मुझसे तू पूछने आया है वफा के मायने,
यह तेरी सादादिली मार न डाले मुझको।
खुद को मैं कहीं बाँट न लूँ दामन – दामन,
कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको।......

सादगी ही तो है सरस दरबारी के एहसास में - http://merehissekidhoop-saras.blogspot.in/

मैंने तो कभी प्रेम कविता लिखी ही नहीं !
आज तक जो भी लिखा -
तुम से ही जुड़ा था  -
उसमें विरह था ...दूरियां थीं...शिकायतें थीं..
इंतज़ार था ...यादें थीं..
लेकिन प्रेम  जैसा कुछ भी नहीं ....
हो सकता है वे जादुई शब्द
हमने एक दूसरे से कभी कहे ही नहीं-
लेकिन हर उस पल जब एक दूसरे की ज़रुरत थी ...
हम थे...
नींद  में अक्सर तुम्हारा हाथ खींचकर ...
सिरहाना बना  ..आश्वस्त  हो सोई  हूँ .....
तुम्हारे घर देर से पहुँचने पर बैचैनी ...
और पहुँचते ही महायुद्ध !
तुम्हारे कहे बगैर -
तुम्हारी चिंताएं टोह लेना-
और तुम्हारा उन्हें यथा संभव छिपाना
हर जन्म दिन पर रजनी गंधा और एक कार्ड ...
जानते हो उसके बगैर -
मेरा जन्म दिन अधूरा है
हम कभी हाथों में हाथले
चांदनी रातों में नहीं घूमे-
अलबत्ता दूर होने पर
खिड़की की झिरी से चाँद को निहारा ज़रूर है
यही सोचकर की तुम जहाँ भी हो ..
उसे देख मुझे याद कर रहे होगे....
यही तै किया था न -
बरसों पहले
जब महीनों दूर रहने के बाद -
कुछ पलों के लिए मिला करते थे
कितना समय गुज़र गया
लेकिन आदतें आज भी नहीं बदलीं
और इन्ही आदतों में
न जाने कब --
प्यार शुमार हो गया -
चुपके से ...
दबे पाँव.....


तुम्हारे लिए प्यार था
ज़मीं से फलक तक साथ चलने का वादा..
और मैं खेत की मेड़ों पर हाथ थामे चलने को
प्यार कहती रही....
तुम चाँद तारे तोड़ कर
दामन में टांकने की बात को प्यार कहते रहे...
मैं तारों भरे आसमां तले
बेवजह हँसने और बतियाने को
प्यार समझती रही..
तुम सारी दुनिया की सैर करवाने को
प्यार जताना कहते..
मेरे लिए तो पास के मंदिर तक जाकर
संग संग दिया जलाना प्यार था...
तुम्हें मोमबत्ती के रौशनी में
किसी आलीशान होटल में
लज़ीज़ खाना, प्यार लगता था...
मुझे रसोई में साथ बैठ,एक थाली से ,
एक दूजे को
निवाले खिलने में प्यार दिखा...

शहंशाही प्यार था तुम्हारा...
बेशक ताजमहल सा तोहफा देता...
मौत के बाद भी...

मगर मेरी चाहतें तो थी छोटी छोटी...
कच्ची-पक्की ..खट्टी मीठी...चटपटी...
ठीक ही कहते थे तुम...
शायद पागल थी मैं...

डॉ चेतन भंडारी - http://6tann.blogspot.in/

प्यार ...
क्या है यह ?
लफ्ज़ नही है सिर्फ़
जिसे बाँध लिया जाए
किसी सीमा में
और खत्म कर दिया जाए
उसकी अंतहीनता को

प्यार ....
वस्तु भी नही है कोई
यह तो है एक एहसास
एक आश्वासन
जो धीरे धीरे
दिल में उतरता
मुक्त गगन सा विचरता
शब्दों को कविता कर जाता है

प्यार .....
है नयनों में भरा सपना
जो कई अनुरागी रंगो से रंगा
चहकता है पक्षी सा
अंधेरों को उजाले से भरता
नदी सा कल कल करता
बूंद को सागर कर जाता है

प्यार .....
मिलता है सिर्फ़
दिल के उस स्पन्दन पर
जब सारा अस्तित्व मैं से तू हो कर
एक दूजे में खो जाता है
कंटीली राह पर चल कर भी
जीवन को फूलों सा मह्काता है !!...
...................................................................................................प्रेम का लक्ष्य प्रेम है
                                                                                          वह जब भी अपनी प्रत्यंचा खींचता है
                                                                                          दिशाएं पिघलकर नदी की तरह बहती हैं
                                                                                                     और बंजर धरती में
                                                                                                      हरियाली दिखती है ...  
क्रमशः 


9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर रचनायें पढने के लिये मिलीं...आभार

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  2. प्यार को अभिव्यक्त करते खूबसूरत लिंक्स और कमाल करती आपकी लेखनी ...
    जबरदस्त ...!!
    बहुत खूबसूरत ...!!रश्मि दी ...!!

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  3. प्रेम सिर्फ वो अहसास है, जिसे सबने अपने दिल में छिपा लिया और फिर शब्दों में बांधा भी तो सबकी परिभाषा अलग ही बनी . लेकिन यह अहसास जीवन में एक अलग रंग भर देता है , जिसमें रंगा इंसान एक ही दिशा में चलता है , जहाँ सिर्फ औरों के लिए भी प्रेम ही पलता है . इंसान का इंसान से प्रेम

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  4. बहुत सुन्दर दी....
    प्यार पर कुछ कहूँ ये मुनासिब नहीं......
    अपनी रचना यहाँ पाकर खुश हूँ....
    आपकी आभारी हूँ...

    सादर
    अनु

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  5. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ... आपका यह प्रयास सराहनीय है ... आभार

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  6. बहुत सुन्दर...प्रेम ही प्रेम..हर कविता प्रेम में सराबोर कर गयी.

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  7. रश्मिजी बहुत ख़ुशी हुई...बहुत अच्छा लगा ..इतनी सारी प्रेम में सराबोर कवितायेँ...अपने अपने अंदाज़ का प्यार.....सब बेमिसाल ....और हाँ मेरी कविता को जगह देने के लिए बहुत बहुत आभार !!!!

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  8. प्रेम की सबकी अपनी अपनी परिभाषा...पर एहसास एक है...सबकी प्रसंशनीय रचनाओं से रु-ब-रु करवाने ले लिए आभार !!

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  9. बहुत सुन्दर प्रेम की कवितायें

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