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शनिवार, 27 अक्तूबर 2012

लिखते हैं शब्द शब्द बिना किसी सांकल के



लिखते वे भी थे 
लिखती मैं भी हूँ 
लिखते वो भी हैं 
पर कुछ शक्स बेपरवाह उन्हें जीते हैं 
लिखते हैं शब्द शब्द बिना किसी सांकल के 
नहीं डरते किसी से 
वे बस लिखते हैं - अपने लिए 
ताकि किसी दिन वे पढ़ सकें उस दिन को 
जिसे वे खोना नहीं चाहते थे !
लिखा या आईना लगाया 
पता नहीं ...
पर जब भी उस दरवाज़े को खोला है - अपना चेहरा दिखा है 
तो यह मान लूँ कि 
चेहरे अजनबी हो सकते हैं - ख्याल नहीं ........        कुछ ऐसे ही ख्यालों को इकट्ठे उठाकर लायी हूँ ...............















गुरुवार, 18 अक्तूबर 2012

हम लड़ते क्यूँ हैं ?


हम लड़ते क्यूँ हैं ? ' देश के लिए लड़ना , स्वत्व के लिए लड़ना - समझ में आता है . पर जहाँ ऐसा कुछ भी नहीं , वहाँ हम थोड़ी सी जगह बनाकर खड़े हो जाते हैं 
और कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा लेकर लड़ने लगते हैं - क्यूँ ? कोई समस्या हो तो भी समझा जा सकता है , पर सम्मान खोकर समस्या उठाना , बिना किसी प्रयोजन 
के - लड़ाकू मानसिकता को दर्शाता है . जब कोई अच्छी बात होती है तो वहाँ कम लोग नज़र आते हैं , पर यदि लाठी चल रही हो तो सब अपनी लाठी लेकर दौड़ जाते 
हैं ! यदि सर किसी और का है तो चलता है,अपना हो तो फिर ...... !!!
अच्छा लिखिए अच्छा पढ़िए अच्छा सोचिये ....... यूँ ही तीर मत चलाइये हवा में . श्रवण को लग गया तो उसके माता-पिता का श्राप भोगना होगा . इसलिए आराम से 
अच्छी बातों पर मनन करें, कभी खुराफात करने का दिल कर ही जाये तो रुमाल चोर खेलिए :)

छुईमुई से ख्याल - 

तुम हाँ तुम ....: इंतज़ार है !!!!


होगा ये भी,
जब लुढ़काओगी चावल से भरा हुआ वो कलश अपने पैरों से ,
ये घर तुम्हारी बासमती से महक उठेगा !!!!

सोंधी खुशबू से ख्याल -

पानी के एक घूँट से बेताबी और बढ़ी
मेरे गाँव की नदी क्या तेरे शहर से बह आयी है ?

ज़िन्दगी ख्यालों की पांडुलिपि है -

ज़िंदगी ~~ फूलों की ज़ंजीर - बूँद..बूँद...लम्हे....



बाँधे फूल से कोमल रिश्ते ~
बेताब मन को...
महकाते, बहलाते..,
बहकाते...उलझाते..!

कितने रहस्य हैं ख्यालों के -

देखो नज़र के उस पार
बहुत कुछ है
खुरदुरे कम्बलों में लिपटी जाड़ों की रातें
धूल धुसरित बकरियों के झुण्ड
स्कूल के पीछे वाला क्रिकेट ग्राउंड
शाम के रंग में घुली पंछियों की हंसी ठिठोली
भूरी पहाड़ी की गुफा में सुस्ताते शंकरजी
बिस्तर के नीचे रखा यादों का बक्सा
जर्जर सहमे से घर
और कुछ गूंगी आँखें
सब उसी पगडण्डी को तकते हैं
जिसपर दौड़कर तुमने उड़ान भरी थी.

बिना यादों के न सपने न ख्याल -

सपनों के ताने बाने और 
यादों के कुछ टांके 
जीवन भर में क्या क्या पाया 
मोल इन्हीं से आंकें ...

जीवन में क्या खोया क्या पाया ... क्यूँ खोया क्यूँ पाया .... आकलन कीजिये ,ज़रूरी है - 

बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

टिप्पणी तो एक लाइक बटन है ....



टिप्पणी तो एक लाइक बटन है .... 
जो कहता है - तुम्हारे घर हम आये थे !:)
पर कमरों का,दीवारों का,पर्दों का,रंगों का 
सकारात्मक स्पर्श की सूक्ष्म किरणों का अर्थ जाना या नहीं 
....कैसे पता चले !...
जो रूचि से,प्रशंसक के रूप में पढता है वह कुछ कहे बगैर रहता नहीं 
रह भी जाये तो लेखनी में उन अंशों का प्रभाव होता है 
.............
एक ही विषय,एक सी व्याख्या .... सोच की समानता दर्शाती है - 
जो पढ़ते हैं,वे जानते हैं 
जो लिखते हैं वे मन से अहिंसक होते हैं 
.... अब अहिंसा का अर्थ शाकाहारी नहीं 
फिर तो चर्चा बदल जायगी 
सब्जियां भी बिना जीवन के नहीं होतीं 
पपीता तोड़ो तो जो रस निकलता है 
वो लाल नहीं होता 
पर जीवन को ही इंगित करता है 
जीवन नहीं ..... तो सूख जाता है 
जड़ से उखड जाता है - स्वतः ही !!!!!!
...................... बेहतर है कि किसी भी नकारात्मक चिंगारी से हम सकारात्मक उर्जा पैदा करें .... इर्ष्या,द्वेष से आंतरिक घट भरा हो तो उसके परिवेश से देवता लुप्त हो जाते हैं ! तय हमें करना है कि हम दुश्मनी में निष्ठा भाव को मृत बनाना चाहते हैं,या मित्रता न होने पर भी सर्व मंगल मांगल्ये की भावना से चलना चाहते हैं . सोचिये और आइये कुछ पढ़ें -

शिव यानि शक्ति,पार्वती यानि मातृत्व - पुरुष और स्त्री के शरीर,मन की बनावट प्रकृति को सिंचित करती है ... प्रयोजनहीन कोई निर्माण नहीं - श्रेष्ठता अपनी अपनी है,विरोध से उसकी दिशा नहीं भटकती, ना ही अनर्थ को अर्थ कहा जाता है . अर्धनारीश्वर की भूमिका के बावजूद शिव की कठोरता,पार्वती की कोमलता अक्षुण है 


आज भी स्त्री है हर हाल में श्रेष्ठ
मगर उसने ना कभी जताया
जानती है .........जताने वाले कमजोर होते हैं 
..........................................................
प्रतिस्पर्धा का प्रश्न ही नहीं .... सम्मान की बात है . 
दोनों अपनी अपनी परिधि में श्रेष्ठ हैं !

इंसानी फितरत ... जो मिल जाता है,उसे नहीं गुनता - पर जो नहीं मिलता उसके लिए मिली ख़ुशी को भी गँवा देता है 

जो फंस गया 
इच्छाओं के चक्रव्यूह में 
फिर निकल नहीं पाता
कभी बाहर
जीना भूल जाता 
बेचैनी मोल लेता 
उलझ कर रह जाता ........   बेचैनी उसकी अपनी उपज होती है,जिसे बड़े मनोयोग से इंसान सींचता है !

मान,अपमान ... भूख,प्यास ... घर से बेघर ....
गौरैया नहीं खोती आत्मविश्वास,सुबह की किरणों को चोंच में दबाये वह जागरण के गीत गाती ही है 


तुम्‍हारी तपस्‍या से मेरा मन 
भाव-विह्वल हो नित दिन अभिषेक  करने को 
अर्पित करता स्‍नेह, कभी सम्‍मान, कभी ध्‍यान 
वंदित स्‍वरों की पुकार तुम तक पहुँचती जब 
तुम मंद मुस्‍कान लिए 
मुझे भी तप में अपने साथ कर लेती ...!!!....

...... ज़िन्दगी भी कितने खेल रचाती है,रचवाती है . इश्वर जो देता है,उसमें भी जो चलने का साहस करता है - आह ! उसे अपने विकृत मनोरंजन के लिए लोग कैसे कैसे शब्द प्रयोग में लाते हैं !

वह अकेला था
या कई लोगों का
मिला जुला रूप था अकेले
उसने क्या क्या नहीं किया
पेट खातिर
कभी हनुमान कभी शिव
कभी हिजड़ा और कभी नचनिया .....    पेट की खातिर क्या नहीं करता आदमी !


दृष्टि और विश्वास की मान्यता हो तो तुम हो, हर हाल में हर शै में -


छूटती हुयी जिन्दगी में ,
उम्मीद का वजूद -
तेरा होना ही तो है ......!!!!!!!................... जीवन सागर हो या सचमुच का समंदर , उसमें हाथ पांव मारते सुकून पाने की उम्मीद तुम्हीं हो , बस तुम्हीं हो .

इस 'तुम' में भूख,प्यास,गीत,रंग,प्रेम,नृत्य ........ सबकुछ समाहित है 

सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

'एक्दंताये वक्रतुंडाये गौरी तन्याये धीमही'



हवाओं में घोड़े की टाप 
माँ दुर्गा का आगमन 
मन्त्रों का उच्चरण 
श्रद्धा का अर्पण 
कलश में गंगा की छवि 
नवग्रहों,पंचदेवों का आह्वान 
शुद्ध मन,शरीर 
सप्तशती का पाठ 
स्वर दें,मान दें 
मिलकर कहें -
'एक्दंताये वक्रतुंडाये गौरी तन्याये या धीमही'

साथ ही पढ़ें ---

आप में भी है देवी का हर रूप

वंदना अग्रवाल 

इस बार नवरात्र में मां दुर्गा की पूजा पूर्ण मनोयोग से करें, पर साथ ही साथ अपने भीतर छुपे हुए उन गुणों को पहचानने और उभारने का प्रयास भी करें, जो आपको तरक्की की राह पर ले जाएं। आप पाएंगी ही कि आप ही मां दुर्गा की सच्ची प्रतिनिधि हैं। आप में भी देवी का हर रूप विद्यमान है। आपके विभिन्न दैवीय गुणों के बारे में बता रही हैं वंदना अग्रवाल

नवरात्र में बस चार दिन रह गए हैं। सब जगह मां दुर्गा की पूजा की तैयारियां अंतिम चरण में हैं। आप भी इस तैयारी में जुट गई होंगी। मां के सिंहासन, श्रृंगार और भोग के लिए अनेक चीजें तैयार करने की योजना बना रही होंगी। इतना ही नहीं, इस बार मां से क्या मांगेंगी, इसकी भी एक सूची जरूर आपके पास होगी। धन-धान्य, यश-वैभव, बुद्धि-विवेक, न्यायप्रियता-सहनशीलता से लेकर सर्वसिद्धि तक सभी उसमें होंगे। पर क्या आपने सोचा है कि मां दुर्गा की समस्त शक्तियां आपमें भी समाहित हैं?
नवदुर्गा में शक्ति के जिन रूपों की पूजा होती है, वे सभी नारीत्व का प्रतीक हैं। चाहे शक्ति हो या बुद्धि, क्षमा हो या सिद्धि सभी में नारीत्व का बोध होता है। इस तरह आप खुद में मां दुर्गा के नौ स्वरूपों- शैलपुत्री, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री को महसूस कर सकती हैं। जब आप विपरीत परिस्थितियों में खुद को साबित करती हैं, पर्वत के समान मजबूती से हर मुश्किल का मुकाबला करती हैं तो उस समय मां दुर्गा के प्रथम स्वरूप शैलपुत्री का प्रतिनिधित्व कर रही होती हैं। एक बार नजर डालें, आपके आसपास भी ऐसी कई महिलाएं होंगी, जिनके व्यक्तित्वऔर जीवन में आप मां दुर्गा के इस स्वरूप के दर्शन कर पाएंगी। 
मां दुर्गा के दूसरे स्वरूप ब्रह्चारिणी से भी आप अक्सर रूबरू होती होंगी। जब विपरीत परिस्थितियां आपके धैर्य की परीक्षा लेती हैं और अपने कर्तव्य से विचलित हुए बिना सही निर्णय लेकर खुद और परिवार को अनेक झंझावतों से बचाती हैं तो ऐसा करते हुए देवी ब्रह्चारिणी का प्रतिनिधित्व कर रही होती हैं। यही नहीं, समय-समय पर परिवार के हर सदस्य के अधिकारों की रक्षा कर उन्हें न्याय देकर आप मां के तीसरे स्वरूप चंद्रघंटा को अक्सर साकार करती हैं। परिवार का भरण-पोषण जिस खूबसूरती से आप सकती हैं उतना कोई और नहीं। अपने इस कर्तव्य का निर्वाहन करते हुए आप कब मां के चौथे स्वरूप कूष्मांडा को साकार कर देती हैं, पता भी नहीं चलता। गाहे-बगाहे अपनों पर ममत्व लुटाकर आप स्कंदमाता बन जाती हैं। स्कंदमाता मां का पांचवां स्वरूप है। मोह-ममता सृष्टि को कर्मशील बनाए रखने के लिए आवश्यक है। मोह-ममता के आधार पर ही आपसी संबंधों की नींव तैयार होती है और यहीं आप मां के कात्यायनी स्वरूप को साकार कर देती हैं। काल से कभी खुद लड़कर तो कभी दूसरों में संघर्ष का जीवट जगा कर आप मां के कालरात्रि स्वरूप का प्रतिनिधित्व करती हैं। कभी पति, कभी संतान, तो कभी मित्रों की परेशानियों और कठिन समय में उनका हौसला बढ़ाती हैं। यह आप ही का जीवट है, जिसके दम पर आपके पति को हर मुकाम पर सफलता मिलती है। आप मार्गदर्शक भी हैं। समय-समय पर अपने आसपास के लोगों को दिशा-निर्देश देकर उन्हें नई राहें दिखाती हैं। पथप्रदर्शक की इस भूमिका में आप मां के महागौरी स्वरूप का प्रतिनिधित्व कर रही होती हैं। हर कार्य को अंजाम तक पहुंचाना आपका स्वभाव है। ऐसा कर आप मां दुर्गा के नौवें स्वरूप सिद्धिदात्री को साकार करती हैं। यह आपका कौशल, निष्ठा एवं ईमानदारी है कि पूरा घर खुशियों से सराबोर है। चारों ओर समृद्धि व शांति है।


रविवार, 14 अक्तूबर 2012

महिषासुरमर्दिनी !






माँ , तुमने महिषासुर का संहार किया
नौ रूपों में अपने
नारी की शक्ति को समाहित किया !
अल्प बुद्धि - सी काया दी
वक्त की मांग पर तेज़
जब-जब अत्याचार बढ़ा
तुमने काया कल्प किया !
पर यह महिषासुर हर बार क्यूँ सवाल बन खड़ा होता है ?

रश्मि प्रभा 


नीलम प्रभा 
DPS पटना 

हे महिषासुरमर्दिनी ! 
क्या महिषासुर मारा गया था ?
लगता तो नहीं.....
तो आश्विन शुक्ल पक्ष
महाल्या से विजयदषमी 
नवरात्र
नवदुर्गा
शक्ति की उपासना 
विजय पर्व
सब यों ही हैं माँ ?..?..?
गली-कूचे,राजपथ, धर्मसभा ,धर्मरथ;
बाढ़ग्रस्त इलाके या सूखाग्रस्त मैदान
खुली सड़क,मकान या धूम्रसकट यान;
निठारी से अजमेर घूमता है काल
बेर-कुबेर, शाम -सबेर रात गए या ब्रह्मबेर
महिष कहाँ नहीं घूमता....! 
और ..... एकवचन नहीं रहता
दुर्भाग्य का उत्कर्ष..........!
कि उड़ती चिड़िया के पर गिनने वाले महारथियों की दृष्टि भी -
उन्हें जान नहीं पाती,पहचान नहीं पाती.......
पर तुम्हारी दृष्टि उन पर कैसे नहीं जाती ???
माँ ...! क्या अब तुम हर बरस धरती पर नहीं आती ???
......
........

-‘मैं क्यों आऊँ ? तुम बताओ।
सारी सामग्री जुटाते हो 
कलश बिठाते हो 
मंडप सजाते हो , 
दोनों हाथों से अर्थ लुटाते हो
पर शक्ति की उपासना तो नहीं करते
पाप की ग्लानि से जब स्वयं नहीं मरते 
तो  दूसरों पर उँगली क्यों उठाते हो ?
सातवें सुर से आगे जाकर रात-रात भर चिल्लाते हो
और यह भ्रम पाले बैठे हो कि मुझे बुलाते हो !
महिष सदा पुनर्जीवित होता है - तुम्हे नहीं पता ?
और वह हर एक के अंदर है।
अब महिष तो महिष को मारने से रहा ........!
विजय का पर्व मना सको ,
उसके लिए जो शक्ति अपेक्षित है
उसे अपने अंदर जगाओ ,फिर मुझे बुलाओ।
जब मैं न आने का दुस्साहस जुटा नहीं सकती 
तो महिषासुर क्या है!
तुम शस्त्र उठाओ इसके पहले, 
वह स्वयं आत्मदाह करेगा
......... विश्वास नहीं होता ?
जब तक करोगे नहीं , नहीं होगा।


सुनीता

(यह रचना उन सभी के लिए जो स्त्रियॉं को अपने से कमतर समझते हैं...)

मैं आमिन: हूँ मैं जननी हूँ मैं दुर्गा भी हूँ (आमिन:=निर्भय स्त्री )
====================
कि अब मुझे उड़ने के लिए तुमसे 
न तो योग्यता प्रमाण-पत्र चाहिए और न ही चरित्र प्रमाण-पत्र 
कि इस आकाश पर जो मुझे रसोई की खिड़की से दिख रहा है
उतना ही हक़ है जितना तुम्हें है 
यदि तुम्हारे हाथों कैंची है तो समझ लो 
कि मेरी चोंच भी कम पैनी नहीं है
मैं गर पत्ते सिल घर बना सकती हूँ
तो इसी चोंच से काठ भी फोड़ सकती हूँ
कि अब मेरी आँखें सिर्फ़ झरना नहीं बनती
समय आने पर सूरज का ताप भी ले सकती हैं
कि यदि मैं बना सकती हूँ तो
समय आने पर मिटाने का माद्दा भी रखती हूँ
मुझसे उलझने से पहले
सौ बार सोचना होगा तुम्हें
कि अब च्यवनप्राश और ग्लुकोज़ पर सिर्फ़ तुम्हारा ही हक़ नहीं है
सोच समझ कर देना जो भी देना मुझे
कि उसे ही चार चौगुना कर अर्पण करूंगी तुम्हें
अब निर्भर है तुम पर
क्या देते हो तुम मुझे
प्यार या मार
यदि मैं तुम्हारा हाथ पकड़ सकती हूँ संभलने के लिए
तो उसी की मजबूती से तुम्हें पटखनी भी खिला सकती हूँ
कि मार्शल आर्ट अब मेरा भी क्षेत्र है
अब तुम्हें ऊपर आना ही होगा
मेरे केश गुच्छ से
मेरी देह के उभारों से
जानना होगा कि जिन स्तनों के अमृत से आज तुम इतने शक्तिशाली हुए
कि मुझे ही रौंदने चले
तो खुद मुझमे कितनी शक्ति समाई होगी
अब मैं सिर्फ़ बेटी,बहन,बीवी और माँ ही नहीं हूँ
अब मैं,मैं भी हूँ और तुम्हें इसे स्वीकारना होगा
ना समझाना कि मैं अकेली ही जागी हूँ
कि मुझे अब जगाना भी खूब आ गया है
हाँ , मैं आमिन: हूँ जननी हूँ दुर्गा भी हूँ....

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

आत्मा के इंधन से बने शाब्दिक भोजन




आह के दहकते कोयले
मन को बना देते हैं ज्वालामुखी 
फटता है जब ज्वालामुखी
तो चिथड़ों में बनती है आकृति-
कवि की,कथाकार की ....

सुशील कुमार - http://www.sushilkumar.net/

माँ की याद में

दुनिया के टंठों से आजिज आ
लौट आऊँगा जब तुम्हारे पास 
तो गोद में मेरा सिर धर
अपनी खुरदरी हथेली से 
जरा थपकियाना मुझे माँ 

क्या बताऊँ 
जब से तुम्हें छोड़ 
परदेस आया हूँ माँ
रोजी कमाने, 
कभी नींद-भर सोया नहीं !

न खाया ही डकार मारकर 
भरपेट खाना

तुम्हारे हाथ की रुखी-सूखी में
मन का जो स्वाद बसा था
वह पिज्जा बर्गर चाऊमिन जैसी चीजें खाते 
मिल न पाया कभी यहाँ

जब भी ब्रेड और साऊस की कौर भरता हूँ
तुम्हारे हाथ की बथुआ-मेथी की साग
सोंधी लिट्टियाँ, आलू-बैंगन के भुरते
आम की चटनी और मच्छी-रोटी 
की ही यादें ताजा हो आती हैं माँ

और यहाँ तो कनफोड़ संगीत के शोर में
पूरा शहर ही डूबा होता है
अलस्सुबह से रात तक...तुम्हारी 
लोरी और सोहर सुने
बहुत दिन हुए माँ

आलीशान इमारत के इस आठ बाइ दस में
अब अपना दम बहुत घुटता है 
सच माँ तू खुद
भरा-पूरा एक घर थी
जहाँ लड़-झगड़कर कोने में तिपाई बिछाकर
आराम से हम भाई-बहनें रहते थे 

यद्यपि तुम्हारी झुर्रियों पर
तब भी दु:खों के जंगलों का डेरा था 
फिर भी तुम्हारे आँचल में 
सुख की घनी छाया किलकती थी 

जेठ-आषाढ़ आँधी-बतास 
सबकुछ झेलती थी तू
हँसी-खुशी हमारे लिये 
जितना ठोस था तुम्हारा स्वभाव 
कुसमय के साथ संघर्ष करते 
उतनी ही तरल थी तू 
(जल की तरह) हमारे लिये

जितनी अधीर हो उठती थी
जरा सी हमारे खाँसने-कुहरने से
उतने ही धीरज बटोरे बैठी थी तू
हर बाधा के पार उतर आने को
इतना आदर कौन करेगा माँ 
एक तेरे सिवाय यहाँ ?

पृथ्वी ने चुपके से रख दी होगी 
जरूर तुम्हारे अंतस में 
शीत-ताप सहने की अद्भूत कला
(जो सुख-दु:ख भरे संवेदनों के बीच
प्रकृति में अनगिन चेहरे पालती है)

पर माँ, तुम्हारी पथरायी आँखों में अब
न सागर लहराते हैं न सपने
समय की सलीब से टंगी तू सचमुच
एक जीवित तस्वीर हो गयी है
जिसकी आरी-तिरछी लकीरों में 
हम भाई-बहनों के बीते दिनों के पन्ने
फड़फड़ाते हैं हमें आगाह करते कि
उस ममता को कभी 
अपनी स्मृति से जुदा न करना
जिसने बचा रखी है सारी दुनिया
इस निर्मम घोर कलि में
वर्ना कौन है बचवैया 
इस दुनिया में हमारा अपना
एक तेरे बिन,
कहो न माँ... ?***

आकृति के अन्दर उम्र के साथ कई रंग अंगड़ाइयां लेते हैं - 

 प्रेमचंद गाँधी - http://prempoet.blogspot.in/

प्रेम का अंकशास्‍त्र

नौ ग्रहों में सबसे चमकीले शुक्र जैसी है उसकी आभा
आवाज़ जैसे पंचम में बजती बांसुरी 
तीन लोकों में सबसे अलग वह 
दूसरा कोई नहीं उसके जैसा 
नवचंद्रमा-सी दर्शनीय वह 
लुटाती मुझ पर सृष्टि का छठा तत्‍व प्रेम 
नौ दिन का करिश्‍मा नहीं वह 
शाश्‍वत है हिमशिखरों पर बर्फ की मानिंद 
सात महासागरों के जल से निखारा है 
कुदरत ने उसका नव्‍यरूप 
खत्‍म हो जाएं दुनिया के सातों आश्‍चर्य 
वह लाजिमी है मेरे लिए 
जिंदगी में सांस की तरह 
पृथ्‍वी पर हवा-पानी-धूप की तरह।....

दर्द की लकीरें प्रेम से ही निकलती हैं,रिश्ता कोई भी हो... 

तूलिका शर्मा - http://mankacanvas.blogspot.com/

दर्द की लकीरें

ये सड़क नहीं  
धरती के सीने पर
दर्द की लकीरें हैं
जो ढूंढ रही है
दर्द का एक और सिरा.

दिन रात चलती हैं
पर न थकती हैं
न मंज़िल तक पहुँचती है
कितने ही रहबर ...रहनुमा
रौंद कर सीना इसका
निकल जाते हैं
अपनी मंज़िल को
उन्हें पहुंचाती है
उनके मुक़ाम तक...
कुछ और हमसफ़र
साथ ले चल देती है
अनंत यात्रा को.

कितने ही शहरों-गाँवों
कस्बों-कूचों का
हाथ थाम
जोड़ देती है
कुछ टूटे सिरे,
कुछ भटकी राहें,
कुछ खोये रिश्ते ....

तुम्हारे शहर की
सरहद पर जाकर
कैसे बदल जाती है यकायक ?
फ़ोर लेन और सिक्स लेन के
चमचमाते रूप से चौंधियाती
क्यूँ बदल लेती है
अपना स्वभाव ...
शायद तुम्हारे शहर को ही
भरमा लेने की आदत है !!

स्वादिष्ट व्यंजनों की कमी नहीं .... क्योंकि शब्दों के अरण्य में एक से एक जादूगर हैं 

रविवार, 7 अक्तूबर 2012

आत्मा के इंधन से बने शाब्दिक भोजन



मैं और तुम 
और यह प्रकृति ....
कितना सौंदर्य,कितने रहस्य,कितने प्राप्य,
धरती अपनी
आकाश अपना
पाताल का भी ज्ञान
तारों से गुफ्तगू
आवश्यकताओं का अकूत भण्डार है इसमें
तो भावनाओं की अप्रतिम लहरें भी  ... 
...स्रोत ? .............. कभी वृक्ष,कभी नीड़,कभी ओस,कभी पहाड़,कभी कुम्हार,कभी ख़ामोशी....
स्रोत ही स्रोत हैं प्रेम,नफरत,क्रांति .... के 
इन्हीं स्रोतों के आगे ठिठकते हैं एहसास,
कोई कवि,कोई कहानीकार,कोई गीतकार,कोई मूर्तिकार,कोई चित्रकार.....बनता है 
सफल हुए तो आजीविका बन जाती है
नहीं हुए तो भी
आत्मा की भूख मिटती है ! 
:) तो चलिए मैं परोसती हूँ आत्मा के इंधन से बने शाब्दिक भोजन,
लम्हों की भूख मिटेगी - सच्ची ..................


अरविन्द जांगिड  - http://arvindjangid.blogspot.in/

जब कभी मन नहीं लगता,
तो मैं बाहर निकल पड़ता हूँ,
मगर सच कहूँ तो,
एक अजीब से फासले के साथ,
ये मैंने नहीं बनाया,
तो फिर किसने बनाया, 
मुझे कुछ पता नहीं,
हाँ, मगर कोई बात तो है,
जब भी मैं बोलता हूँ,
कुछ डरा सा रहता हूँ,
हाँ, ज्यादातर चुप ही रहता हूँ,
इसमे मेरी कोई गलती नहीं,
लोग सोच कर बोलते हैं,
समझ कर बोलते हैं,
और 'तौल' कर बोलते हैं,
उनके पास तराजू हैं,
हर बात का अलग,
कई तराजू हैं उनके पास,
मगर मेरे पास एक भी नहीं,
एक बार मैं उस तराजू को घर लाया था,
मगर जब भी मैंने तराजू की बाते मानी,
लगा जैसे अंदर कुछ टूट रहा हो,
बरसों का साथी कोई छूट रहा हो,
फिर मैंने उस तराजू को खुद ही तोड़ डाला,
उन लोगों से मिलकर कुछ खुशी होती है,
जिनके पास कोई तराजू नहीं,
सच मैं खुशी होती है.....,
यूँ तो शहर में कई तराजू बिकते हैं,
सबका अपना अपना,
मगर कोई 'सबका' नहीं,
कही ऐसा तराजू जो हो 'सबका',
अब तो बस उसे ही ढूंढता रहता हूँ,
'सच' तो ये है की वो लोग,
जो तराजू वाले हैं,
वो रौशन हैं.....,
मगर उनके अंदर है,
 अंधेरा...बस अंधेरा !

अंजू चौधरी  - http://apnokasath.blogspot.in/

जब भी खुद को आईने मे देखा
उसे भी मुझ पे हँसते पाया ...
वक़्त के हाथो खुद को लुटा पाया ..
मै तो अंधेरो मे खो जाती ....
इस दुनिया की  भीड़ मे ..
अगर ..वो 
मेरा हाथ न थामता.....
खीँच लाया वो मुझे अंधेरो से बाहर .....
उसकी निगाहों ने तराशा है मुझे ..
उसकी  बातो से मिला है ..
जीवन मे नया रूप मुझे ..
मै तो खो चुकी थी ..
आत्मविश्वास अपना ...
पर उसकी बदौलत ..
जी ली मैने भी ...
अपने सपनो की  दुनिया ..
मिला प्यार इतना ....कि
मैंने खुद को उसके लिए बदल डाला..
समय पे साथ चलके उसे ने ...
मुझे नयी ताकत से रूबरू ..
करवा डाला ...
मेरी जीने की  इच्छा को
फिर से उसने ..जीवंत कर डाला ............
अब जब भी खुद को आईने मे देखा
अपना नया सा रूप है मैंने पाया |

 पूनम सिन्हा   - http://punamsinhajgd.blogspot.in/


बड़ी द्विविधा में हूँ आजकल......
किसे स्वीकार करूँ.....???
एक वो 'तुम' हो 
जिसे मैं अब तक जानती थी,
पहचानती थी...!
आज वो कहीं गुम हो गया है 
तुम में....तुम्हीं में....! 
और आज एक वो 'तुम' हो...
जो उस तुम से अनजान 
अपने जीवन की सारी सच्चाइयाँ 
अपने आप में समेटे मेरे समक्ष है.......!
हमेशा ही तुम्हें एक सहारे की खोज रही...
कभी इंसान,कभी भगवान...
घर,बाहर,अपने शहर से दूसरे शहर...
अपने-पराये...
सब में सहारा खोजते हुए 
तुम इतनी दूर निकल गए 
कि अब वापस आना भी  
मुमकिन नहीं रहा...!
शायद तुम ये अच्छे से जान भी गए हो...!
तभी तो आज 
अपने ही अहं को सबसे बड़ा 
सहारा बना लिया है तुमने !
इसमें मैं कहाँ हूँ तुम्हारे साथ.....??
इस 'तुम' को मैं जानती नहीं....
न ही पहचानती हूँ...!
और 'वो तुम' रहे नहीं...
कभी सोचूँ भी तो...... 
बोलो किसे स्वीकारूँ....???

(लेकिन ये द्विविधा मेरी अपनी है....तुम्हारी नहीं....!!)


अपर्णा त्रिपाठी "पलाश" - http://aprnatripathi.blogspot.in/

कितना सुहाना दौर हुआ करता था , जब खत लिखे पढे और भेजे जाते थे । हमने पढे लिखे और भेजे इसलिये कहा क्योकि ये तीनो ही कार्य बहुत दुष्कर लेकिन अनन्त सुख देने वाले होते थे ।
                               खत लिखना कोई सामान्य कार्य नही होता था , तभी तो कक्षा ६ मे ही यह हमारे हिन्दी के पाठ्यक्रम मे होता था । मगर आज के इस भागते दौर मे तो शायद पत्र की प्रासंगिकता ही खत्म होने को है । मुझे याद है वो समय जब पोस्ट्कार्ड लिखने से पहले यह अच्छी तरह से सोच लेना पडता था कि क्या लिखना है , क्योकि उसमे लिखने की सीमित जगह होती थी , और एक अन्तर्देशीय के तो बँटवारे होते थे , जिसमे सबके लिखने का स्थान निश्चित किया जाता था । तब शायद पर्सनल और प्राइवेट जैसे शब्द हमारे जिन्दगी मे शामिल नही हुये थे । तभी तो पूरा परिवार एक ही खत मे अपनी अपनी बातें लिख देता था । आज तो मोबाइल पर बात करते समय भी हम पर्सलन स्पेस ढूँढते है ।
                 पत्र लिखने के हफ्ते दस दिन बाद से शुरु होता था इन्तजार – जवाब के आने का ।जब डाकिया बाबू जी को घर की गली में आते देखते ही बस भगवान से मनाना शुरु कर देते कि ये मेरे घर जल्दी से आ जाये । और दो चार दिन बीतने पर तो सब्र का बाँध टूट ही जाता था , और दूर से डाकिये को देखते ही पूँछा जाता – चाचा हमार कोई चिट्ठी है का ? और फिर चिट्ठी आते ही एक प्यारे से झगडे का दौर शुरु होता – कि कौन पहले पढेगा ? कभी कभी तो भाई बहन के बीच झगडा इतना बढ जाता कि खत फटने तक की नौबत आ जाती । तब अम्मा आकर सुलह कराती । अब तो वो सारे झगडे डाइनासोर की तरह विलुप्त होते जा रहे हैं । 
                                   और प्रेम खतों का तो कहना ही क्या उनके लिये तो डाकिये अपनी प्रिय सहेली या भरोसेमंद दोस्त ही होते थे  । कितने जतन से चिट्ठियां पहुँचाई जाती थी , मगर उससे ज्यादा मेहनत तो उसको पढ्ने के लिये करनी पडती थी । कभी छत का एकान्त कोना ढूँढना पडता था तो कभी दिन मे ही चादर ओढ कर सोने का बहाना करना पडता था । कभी खत पढते पढते गाल लाल हो जाते थे तो कभी गालो पर आसूँ ढल आते थे । और अगर कभी गलती से भाई या बहन की नजर उस खत पर पढ जाये तो माँ को ना बताने के लिये उनकी हर फरमाइश भी पूरी करनी पडती थी।
खत पढते ही चिन्ता शुरु हो जाती कि इसे छुपाया कहाँ जाय ? कभी तकिये के नीचे , कभी उसके गिलाफ के अंदर , कभी किताब के पन्नो के बीच मे तो कभी किसी तस्वीर के फ्रेम के बीच में । इतने जतन से छुपाने के बाद भी हमेशा एक डर बना रहता कि कही किसी के हाथ ना लग जाय , वरना तो शामत आई समझो ।
                  अब आज के दौर मे जब हम ई – मेल का प्रयोग करते है , हमे कोई इन्तजार भले ही ना करना पडता हो , लेकिन वो खत वाली आत्मियता महसूस नही हो पाती । अब डाकिये जी मे भगवान नजर नही आते । आज गुलाब इन्तजार करते है किसी खत का , जिनमे वो सहेज कर प्रेम संदेश ले जाये । शायद खत हमारी जिन्दगी मे बहुत ज्यादा अहमियत रखते थे तभी तो ना जाने कितने गाने बन गये थे – चाहे वो – वो खत के पुरजे उडा रहा था हो या ये मेरा प्रेम पत्र पढ कर हो , चाहे चिट्ठी आई है हो या मैने खत महबूब के नाम लिखा हो ।आज चाहे ई –मेल हमारी जिन्दगी का हिस्सा जरूर बन गये हो मगर हमारी यादो की किताब मे उनका एक भी अध्याय नही , शायद तभी आज तक एक भी गीत इन ई-मेल्स के हिस्से नही आया ।
                        आज भी  मेरे पास कुछ खत है  जिन्हे मैने बहुत सहेज कर रक्खा है , मै ही क्यो आप के पास भी कुछ खत जरूर होंगे (सही कहा ना मैने)  और उन खतों को पढने से मन कभी नही भरता जब भी हम अपनी पुरानी चीजों को उलटते है , खत हाथ में आने पर बिना पढे नही रक्खा जाता ।

आज भी तेरा पहला खत
मेरी इतिहास की किताब में हैं
उसका रंग गुलाबी से पीला हो गया
मगर खुशबू अब भी पन्नो में है

उसके हर एक शब्द हमारी
प्रेम कहानी बयां करते है 
और तनहाई में मुझे
बीते समय में ले चलते हैं

वो खत मेरी जिन्दगी का
 हिस्सा नही ,जिन्दगी है   
 हर दिन पढने की उसे  
बढती जाती तिश्नगी है


इन भावनाओं में  ख़्वाबों,उम्मीदों की नाव हम भी डाल देते हैं - लिखें ख़त ..... बहुत अधिक ना सही,एक चुटकी तो पुराने दिन लौट आएँ 

बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

गाहे गाहे इसे पढ़ा कीजे ...12




प्यार की जब बात हो,प्यार के पन्ने पलटे जाएँ तो अपनी पसंद के पन्नों के साथ कोई पास आ खड़ा होता है, आज के पन्ने लेकर हमारे साथ हैं वाणी शर्मा - http://vanigyan.blogspot.in/


अली सैयद - http://ummaten.blogspot.in/


उसने कहा ध्यान करो , उस ईश्वर का जो सृष्टि का रचयिता है  , जिसके कोई माता पिता नहीं और  जो अजन्मा है  , अनादि और  अनन्त है , सारे  ब्रम्हांड  उसमें  हैं  , जीवन और मृत्यु ...पुनर्जन्म और मोक्ष  जिसके इशारों पर तिरते हैं  ! मैंने कहा...मेरे ध्यान में केवल तुम हो  !

उसने कहा...मैं तो नश्वर हूं  , तुम ध्यान करो उस ईश्वर का जो  शाश्वत है , सनातन और चिर नवीन , अदभुत , अप्रतिम सौन्दर्य और भयंकर असौन्दर्य का स्वामी है जो  ! वही जिसकी करुणा और क्रोध का कोई छोर नहीं , तुम्हें  केवल उसे ही साधना है  !  मैं कहता हूं ...मैं  बस तुम्हें ही साधना चाहता हूं  ! 

नहीं मुझे क्यों  ?  तुच्छ अंश को छोड़ कर  तुम ध्यान करो उस परम अंश का , जो हम सबमें है और एक दिन हम सब को उसमें ही विलीन हो जाना है  ! सारी प्रकृति , सारे रंग , सुबह की ओस , दोपहर की सारी ऊष्मा और  रात्रि की नीरवता उसकी ही है  ! सुर ताल और नृत्य उससे ही हैं  !  गेय सब उसका और अगेय भी  ! ध्वनियां और जो ध्वनियां नहीं भी हैं  वे सब उसके कारण से अस्तित्व में है  !  मैं कहता हूं ...मेरे लिए इन सब का कोई मोल नहीं जो तुम ना होओ तो  ! 

उसने कहा तुम भटक रहे हो , सत्य के मार्ग से , ईश्वर सत्य है और मुक्तिदाता भी , हमें माया से मुक्त होना है और भौतिक जगत के उस पार की अलौकिकता के लिए तैयार भी होना है  ! अपने सारे भ्रमों को त्यागो और ध्यान करो उस ईश्वर का जो इहलौकिक जागतिक असत्य  से  इतर  परम सत्य है  !  सारे सुख और दुखों का चक्रव्यूह उसने ही रचा है  !  सारे रस ,  विषाद और आल्हाद उसने ही गूंथे हैं हमारे संबंधों के छल में   !  सो ध्यान करो  !  मैं कहता हूं... मुझे छला जाना प्रिय है  अगर उसमें तुम्हारा अहसास  भी हो  तो  !

तुम समझ नहीं रहे हो , हर यात्री को गंतव्य की सोचना चाहिये !  भटकाव का कोई अंत नहीं यदि तुम ना चाहोगे तो ! इसलिये ध्यान करो  !  ईश्वर गंतव्य है  !  मैं कहता हूं  ...नहीं ये ध्यान मुझसे ना होगा क्योंकि मेरी भटकन तुमसे है और मेरा गंतव्य भी तुम ही हो   ! 

उसने कहा...बहुत हुआ अब तुम शांत होकर अपनी आंखें बंद करो और ईश्वर का ध्यान करो  !  मैंने कहा छोडो भी ...मैं समझ गया कि तुम चाहती हो कि मैं तुम्हें ना देखूं ...तो फिर यह जान लो कि आंखें बंद करके भी मैं केवल तुम्हें ही देख पाता हूं  ! 

ईश्वर...उसे कभी देखा ही नहीं पर तुम...हर क्षण मेरे ठीक सामने का सत्य हो इसलिये मेरा सारा प्रेम और जितनी भी श्रद्धा मेरे अंदर बसती हो यहां तक कि थोड़ी बहुत घृणा भी यदि शेष रह गई हो मेरे मन के किसी कोने में ! यह सब केवल तुम्हारा है ...

-समीर लाल ’समीर’- http://udantashtari.blogspot.in/

वो दूर से भागता हुआ आया था इतनी सुबह...शायर की भाषा में अल सुबह और गर मैं कहूँ तो कहूँगा सुबह तो इसे क्या..क्यूँकि अभी तो रात की गिरी ओस मिली भी नहीं थी उस उगने को तैयार होते सूरज की किरणों से...विलिन हो जाने को उसके भीतर- खो देने को अपना अस्तित्व उसकी विराटता में समाहित हो कर खुशी खुशी. 

देखा था मैने कि वो हांफ रहा था मगर कोशिश थी कि सामान्य नज़र आये और कोई सुन भी न पाये उसकी हंफाई.... दिखी थी मुझे ....उसकी दोनों मुठ्ठियाँ भिंची हुई थी और चेहरे पर एक विजयी मुस्कान......एक दिव्य मुस्कान सी शायद अगर मेरी सोच के परे किसी भी और परिपेक्ष्य में उसे लिया जाये तो...मगर मुझे वो उसकी वो मुस्कान एक झेंपी सी मुस्कान लगी.. जब मैने उससे कहा कि क्या ले आये हो इस मुठ्ठी में बंद कर के ..जरा मुट्ठी तो खोलो...अभी तो सूरज भी आँख ही मल रहा है और तुम भागते हुए इतनी दूर से जाने क्या बंद कर लाये हो इन छोटी सी मुट्ठियों में...मुझे मालूम है कि कुछ अनजगे सपने होंगे सुबह जागने को आतुर-इस सोच के साथ कि शायद सच हो जायें.,..दिखाओ न...हम भी तो देखें...

खोल दो न अपनी मुट्ठी......

वो फिर झेंपा और धीरे से...कुछ सकुचाते हुए...कुछ शरमाते हुए..आखिर खोल ही दिये अपनी दोनों मुठ्ठियाँ में भरे वो अनजगे सपने… मेरे सामने...और वो सपने आँख मलते अकबका कर जागे.. मुझे दिखा कुछ खून......सूर्ख लाल खून.. उसकी कोमल हथेलियों से रिसता हुआ और छोटे छोटे ढेर सारे काँटे गुलाब के..छितराये हुए उन नाजुक हथेलियों पर..कुछ चुभे हुए तो कुछ बिखरे बिखरे हुए से....न चुभ पाने से उदास...मायूस...

-अरे, ये क्या?- इन्हें क्यूँ ले आये हो मेरे पास? मुझे तो गुलाब पसंद हैं और तुम ..ये काँटे  .. ये कैसा मजाक है? मैं भला इन काँटों का क्या करुँगी? और ये खून?...तुम जानते हो न...मुझे खून देखना पसंद नहीं है..खून देखना मुझे बर्दाश्त नहीं होता...लहु का वो लाल रंग...एक बेहोशॊ सी छा जाती है मुझ पर..

यह लाल रंग..याद दिलाता है मुझे उस सिंदूर की...जो पोंछा गया था बिना उसकी किसी गल्ती के...उसके आदमी के अतिशय शराब पीकर लीवर से दुश्मनी भजा लेने की एवज में...उस जलती चिता के सामने...समाज से डायन का दर्जा प्राप्त करते..समाज की नजर में जो निगल गई थी अपने पति को.....बस!! एक पुरुष प्रधान समाज...यूँ लांछित करता है अबला को..उफ्फ!

तुम कहते कि मुझे पता है कि खून तुमसे बर्दाश्त नहीं होता मगर तुम्हारी पसंद वो सुर्ख लाल गुलाब है. मै नहीं चाहता कि तुम्हें वो जरा भी बासी मिले तो चलो मेरे साथ अब और तोड़ लो ताज़ा ताज़ा उस गुलाब को ..एकदम उसकी लाल सुर्खियत के साथ...बिना कोई रंगत खोये...

बस, इस कोशिश में तुम्हे कोई काँटा न चुभे  .तुम्हारी ऊँगली से खून न बहे..वरना कैसे बर्दाश्त कर पाओगी तुम...और तुम कर भी लो तो मैं..

बस यही एक कोशिश रही है मेरी..कि... मेरा खून जो रिसा है हथेली से मेरी...वो रखेगा उस गुलाब का रंग..सुर्ख लाल...जो पसंद है तुम्हें..ओ मेरी पाकीज़ा गज़ल!!

बस. मत देख इस खून को जो रिसा है मेरी हथेली से लाल रंग का.....और बरकरार रख मुझसे विश्वास का वो रिश्ता ..जिसे लेकर हम साथ चले थे उस रोज...और जिसे सीने से लगाये ही हम बिछड़े थे उस रोज...

याद है न वो दोनों दिन...तारीखें क्या थी वो दोनों.....चलो!!! तुम बताओ!!
 
है यार मेरा अपना शाईर जो मेरे दिल के अंदर रहता है
तड़प के वो है पूछ रहा, तू आखिर जिन्दा कैसे रहता है

हिमांशु - http://ramyantar.blogspot.in/

साढ़े छः बजे हैं अभी । नींद खुल गयी है पूरी तरह । पास की बन्द खिड़की की दरारों से गुजरी हवा सिहरा रही है मुझे । ओढ़ना-बिछौना छोड़ चादर ले बाहर निकलता हूँ । देखता हूँ आकाश किसी बालिका के स्मित मधुर हास की मीठी किरणों से उजास पा गया है । सोचता हूँ, कौन मुस्करा रहा है अभी ! शशक-सा ठिठकता हूँ, निरखता हूँ, फिर चलने लगता हूँ । मन में एक उपस्थिति की प्रतीति निरन्तर कर रहा हूँ । ठिठक-ठिठक-सा जा रहा हूँ - कौन खड़ा है सामने ? जल की सरसिज कलिका-सी अँगड़ाई लेती कौन खड़ी है वहाँ ! मन के सरोवर की मरालिनी-सी कौन है वहाँ ! मैं उत्कंठित हूँ , चेतना अ-निरुद्ध सोच रही है । पूछना चाह रहा हूँ, ’धुंध के भीतर छिपी तुम कौन हो ?’ कौन हो तुम आँसुओं की भाषा की तरह मूक ! 

आगे बढ़ता हूँ, निपट रही है धुंध । थोड़ी उजास दिखती है-बाहर भी, भीतर भी । चिन्तन चल रहा है, कौन है वह ! क्या उषा के अरुणिम गवाक्ष से झाँकता सविता है या आलिंगन में समा जाने की व्याकुलता सँजोती बाहों की तन्मय कविता है वह ! कौन है वह ? नेत्रों का आभास पा रहा हूँ - मधु प्याले ढरक रहे हैं । कौन खड़ा है वहाँ ? कल्पना के अनगिन रूप बन-सज रहे हैं । सजग देख रहा हूँ, नवल नील परिधान युक्त आकृति । मुग्ध हो रहा हूँ । निहार रहा हूँ वह अकृत्रिम रूप । अभी प्रारम्भ ही हुए आषाढ़ की सजल घटा-सी श्यामल लटें बिखराये, फेन की तरह उजले दाँतों में चंचल छिटक रहा अंचल-कोर दबाये, अपने चपल हाथों से बार-बार खिसकते अरुण-दुशाले को सम्हालते कोई खड़ा है वहाँ ! अरुणाभ अधर और चन्द्र की विमल विभा से भी छाला पड़ जाने वाली कोमल तन वाली वह कौन खड़ी है वहाँ ! कैसे बखानूँ वह अप्रतिम रूप ? झुकी हुई आँखें हैं, उज्ज्वल तन, जैसे पूर्णिमा की रात ही मुदिता होकर सामने आ खड़ी है । आँकने के बाहर है यह सौन्दर्य । 

मन चहक-चषक में भर लेना चाहता है वह मधु-रूप । चितवन आकर ठहर गयी है भीतर । फिर-फिर निहारता हूँ । कहीं यह मेरे मन के कुसुमित कानन की तरुणी अभिलाषा तो नहीं । कहीं यह मेरी छुपी हुई प्यास, मुझ व्यथित-तृषित चातक की स्वाति-सलिल पिपासा तो नहीं । क्यों बावला हो रहा हूँ मैं ! मैं भ्रमित मतवाला वसंत क्यों हो रहा हूँ ? कौन है, कौन है वहाँ ? 

मैं अभागा, दुबका रह जाता था निद्रा-गलियारों में । आज बाहर आया हूँ, तो दिख रहा है यह अनुपम सौन्दर्य । तुम जो भी हो खड़ी, यूँ ही बाँटती रहो अपनी मदिर चितवन । चाह नहीं कि मुझे अंक भरो, सुमन माल पहनाओ, जलद-दामिनी-सी गले लगो । बस ऐसे ही खड़ी रहो अपने पूरेपन के साथ, सम्पूर्ण सौन्दर्य-विस्तार समेटे । मन संतुष्ट है । प्रश्न भी कहीं पिछलग्गू हो गया है तुम्हारे सौन्दर्य-सम्मुख - कौन हो तुम? 

यूँ ही खड़ा रह गया हूँ देर तक । नहीं जानता कौन है वहाँ, पर लगता है शिशिर ही रूप धर आ खड़ी है । दुर्निवार है तुम्हारा सम्मोहन शिशिर-बाला ! 

मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

गाहे गाहे इसे पढ़ा कीजे ...11





वो खामोश नज्में कहता था मेरे लिए
मैं बदन के रोम रोम से सुना करती थी

वो अपनी आँखों से सहलाता था मुझे
मैं घूँट घूँट उसके इश्क को पिया करती थी

वो कुछ अधूरी सी इबारत लिख गया था मेरी धडकनों पर
मैंने उन्हें अपना नाम पता बनाकर पूरा किया था

वो किसी लैला की बात किया करता था
मैंने लैला को अपने अन्दर सुलगते देखा था एक रोज़

एक रात उसने मेरी कुंवारी रूह को समेटा था
बाहर बरामदे में मोगरा ओस से भीग भीग गया था

वो एक रोज़ टांगा गया था मज़हब की सलीब पर
और सदियों से वो मेरे सीने पर क्रॉस बनकर झूल रहा है  ...... पल्लवी त्रिवेदी - http://kuchehsaas.blogspot.in/

आईना लो,शीशे की किरचनें बटोरो,चुभ जाए तो लहू के कतरे में देखो........प्यार कहाँ नहीं होता ! कहीं पर इतराता,कही बलखाता,कहीं उदास,कहीं फफकता हुआ !!!
किसी के लिए प्यार गंगा जल से अधिक मायने रखता है...किसी बड़े बर्तन में नहीं, बस चार बूंदें ....

नीरा - http://neerat.blogspot.in/

गंगा जल नहीं,
प्यार की आखरी बूंदें
सहेज ली हैं
धरकनो में
लोक - परलोक
तर जाने के लिए...
तुम और प्यार मत करना
बह जायेगा
छलक कर
आंखों से ...
चार बूंद काफ़ी हैं
मुक्ति के लिए....
दो
जिंदगी भर
हर पल
तुम पर
मिटने के लिए
दो
अन्तिम साँस में
हलक और अधर पर लगा
मुस्कुराने के लिए...   

पूजा उपाध्याय http://laharein.blogspot.in/

मुझ तक लौट आने को जानां
ख्वाहिश हो तो...
शुरू करना एक छोटी पगडण्डी से 
जो याद के जंगल से गुजरती है 
के जिस शहर में रहती हूँ
किसी नैशनल हायवे पर नहीं बसा है 

धुंधलाती, खो जाती हुयी कोहरे में 
घूमती है कई मोड़, कई बार तय करती है
वक़्त के कई आयाम एक साथ ही 
भूले से भी उसकी ऊँगली मत छोड़ना 

गुज़रेंगे सारे मौसम
आएँगी कुछ खामोश नदियाँ
जिनका पानी खारा होगा
उनसे पूछना न लौटने वाली शामों का पता

उदास शामों वाले मेरे देश में
तुम्हें देख कर निकलेगी धूप
सुनहला हो जाएगा हर अमलतास 
रुकना मत, बस भर लेना आँखों में

मेरे लिए तोहफे में लाना 
तुम्हारे साथ वाली बारिश की खुशबू 
एक धानी दुपट्टा और सूरज की किरनें
और हो सके तो एक वादा भी 

लौट आने वाली इस पगडण्डी को याद रखने का 
बस...

आती जाती लहरों को छूकर देखो, बहुत कुछ भर जाता है पोर पोर में - याद कहो,प्यार कहो....वही उदासी,वही पुकार,वही मनुहार,वही नजाकत .....
क्रमशः