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रविवार, 14 अक्तूबर 2012

महिषासुरमर्दिनी !






माँ , तुमने महिषासुर का संहार किया
नौ रूपों में अपने
नारी की शक्ति को समाहित किया !
अल्प बुद्धि - सी काया दी
वक्त की मांग पर तेज़
जब-जब अत्याचार बढ़ा
तुमने काया कल्प किया !
पर यह महिषासुर हर बार क्यूँ सवाल बन खड़ा होता है ?

रश्मि प्रभा 


नीलम प्रभा 
DPS पटना 

हे महिषासुरमर्दिनी ! 
क्या महिषासुर मारा गया था ?
लगता तो नहीं.....
तो आश्विन शुक्ल पक्ष
महाल्या से विजयदषमी 
नवरात्र
नवदुर्गा
शक्ति की उपासना 
विजय पर्व
सब यों ही हैं माँ ?..?..?
गली-कूचे,राजपथ, धर्मसभा ,धर्मरथ;
बाढ़ग्रस्त इलाके या सूखाग्रस्त मैदान
खुली सड़क,मकान या धूम्रसकट यान;
निठारी से अजमेर घूमता है काल
बेर-कुबेर, शाम -सबेर रात गए या ब्रह्मबेर
महिष कहाँ नहीं घूमता....! 
और ..... एकवचन नहीं रहता
दुर्भाग्य का उत्कर्ष..........!
कि उड़ती चिड़िया के पर गिनने वाले महारथियों की दृष्टि भी -
उन्हें जान नहीं पाती,पहचान नहीं पाती.......
पर तुम्हारी दृष्टि उन पर कैसे नहीं जाती ???
माँ ...! क्या अब तुम हर बरस धरती पर नहीं आती ???
......
........

-‘मैं क्यों आऊँ ? तुम बताओ।
सारी सामग्री जुटाते हो 
कलश बिठाते हो 
मंडप सजाते हो , 
दोनों हाथों से अर्थ लुटाते हो
पर शक्ति की उपासना तो नहीं करते
पाप की ग्लानि से जब स्वयं नहीं मरते 
तो  दूसरों पर उँगली क्यों उठाते हो ?
सातवें सुर से आगे जाकर रात-रात भर चिल्लाते हो
और यह भ्रम पाले बैठे हो कि मुझे बुलाते हो !
महिष सदा पुनर्जीवित होता है - तुम्हे नहीं पता ?
और वह हर एक के अंदर है।
अब महिष तो महिष को मारने से रहा ........!
विजय का पर्व मना सको ,
उसके लिए जो शक्ति अपेक्षित है
उसे अपने अंदर जगाओ ,फिर मुझे बुलाओ।
जब मैं न आने का दुस्साहस जुटा नहीं सकती 
तो महिषासुर क्या है!
तुम शस्त्र उठाओ इसके पहले, 
वह स्वयं आत्मदाह करेगा
......... विश्वास नहीं होता ?
जब तक करोगे नहीं , नहीं होगा।


सुनीता

(यह रचना उन सभी के लिए जो स्त्रियॉं को अपने से कमतर समझते हैं...)

मैं आमिन: हूँ मैं जननी हूँ मैं दुर्गा भी हूँ (आमिन:=निर्भय स्त्री )
====================
कि अब मुझे उड़ने के लिए तुमसे 
न तो योग्यता प्रमाण-पत्र चाहिए और न ही चरित्र प्रमाण-पत्र 
कि इस आकाश पर जो मुझे रसोई की खिड़की से दिख रहा है
उतना ही हक़ है जितना तुम्हें है 
यदि तुम्हारे हाथों कैंची है तो समझ लो 
कि मेरी चोंच भी कम पैनी नहीं है
मैं गर पत्ते सिल घर बना सकती हूँ
तो इसी चोंच से काठ भी फोड़ सकती हूँ
कि अब मेरी आँखें सिर्फ़ झरना नहीं बनती
समय आने पर सूरज का ताप भी ले सकती हैं
कि यदि मैं बना सकती हूँ तो
समय आने पर मिटाने का माद्दा भी रखती हूँ
मुझसे उलझने से पहले
सौ बार सोचना होगा तुम्हें
कि अब च्यवनप्राश और ग्लुकोज़ पर सिर्फ़ तुम्हारा ही हक़ नहीं है
सोच समझ कर देना जो भी देना मुझे
कि उसे ही चार चौगुना कर अर्पण करूंगी तुम्हें
अब निर्भर है तुम पर
क्या देते हो तुम मुझे
प्यार या मार
यदि मैं तुम्हारा हाथ पकड़ सकती हूँ संभलने के लिए
तो उसी की मजबूती से तुम्हें पटखनी भी खिला सकती हूँ
कि मार्शल आर्ट अब मेरा भी क्षेत्र है
अब तुम्हें ऊपर आना ही होगा
मेरे केश गुच्छ से
मेरी देह के उभारों से
जानना होगा कि जिन स्तनों के अमृत से आज तुम इतने शक्तिशाली हुए
कि मुझे ही रौंदने चले
तो खुद मुझमे कितनी शक्ति समाई होगी
अब मैं सिर्फ़ बेटी,बहन,बीवी और माँ ही नहीं हूँ
अब मैं,मैं भी हूँ और तुम्हें इसे स्वीकारना होगा
ना समझाना कि मैं अकेली ही जागी हूँ
कि मुझे अब जगाना भी खूब आ गया है
हाँ , मैं आमिन: हूँ जननी हूँ दुर्गा भी हूँ....

4 टिप्‍पणियां:

  1. शुक्रिया रश्मिप्रभा दी....आपने मेरा मान बढ़ा दिया इस मेरी कविता को यहाँ ला कर...
    सुनीता

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  2. पम्मीजी नि:शब्द कर दिया आपने ......मुझे गर्व है अपने नारी होने पर !

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  3. सभी रचनाओं का चयन बेहद उत्‍कृष्‍ट है आभार इन्‍हें पढ़वाने के लिए
    सादर

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  4. बहुत सुन्दर ..और प्रेरणात्मक...

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