आह के दहकते कोयले
मन को बना देते हैं ज्वालामुखी
फटता है जब ज्वालामुखी
तो चिथड़ों में बनती है आकृति-
कवि की,कथाकार की ....
सुशील कुमार - http://www.sushilkumar.net/
माँ की याद में
दुनिया के टंठों से आजिज आ
लौट आऊँगा जब तुम्हारे पास
तो गोद में मेरा सिर धर
अपनी खुरदरी हथेली से
जरा थपकियाना मुझे माँ
क्या बताऊँ
जब से तुम्हें छोड़
परदेस आया हूँ माँ
रोजी कमाने,
कभी नींद-भर सोया नहीं !
न खाया ही डकार मारकर
भरपेट खाना
तुम्हारे हाथ की रुखी-सूखी में
मन का जो स्वाद बसा था
वह पिज्जा बर्गर चाऊमिन जैसी चीजें खाते
मिल न पाया कभी यहाँ
जब भी ब्रेड और साऊस की कौर भरता हूँ
तुम्हारे हाथ की बथुआ-मेथी की साग
सोंधी लिट्टियाँ, आलू-बैंगन के भुरते
आम की चटनी और मच्छी-रोटी
की ही यादें ताजा हो आती हैं माँ
और यहाँ तो कनफोड़ संगीत के शोर में
पूरा शहर ही डूबा होता है
अलस्सुबह से रात तक...तुम्हारी
लोरी और सोहर सुने
बहुत दिन हुए माँ
आलीशान इमारत के इस आठ बाइ दस में
अब अपना दम बहुत घुटता है
सच माँ तू खुद
भरा-पूरा एक घर थी
जहाँ लड़-झगड़कर कोने में तिपाई बिछाकर
आराम से हम भाई-बहनें रहते थे
यद्यपि तुम्हारी झुर्रियों पर
तब भी दु:खों के जंगलों का डेरा था
फिर भी तुम्हारे आँचल में
सुख की घनी छाया किलकती थी
जेठ-आषाढ़ आँधी-बतास
सबकुछ झेलती थी तू
हँसी-खुशी हमारे लिये
जितना ठोस था तुम्हारा स्वभाव
कुसमय के साथ संघर्ष करते
उतनी ही तरल थी तू
(जल की तरह) हमारे लिये
जितनी अधीर हो उठती थी
जरा सी हमारे खाँसने-कुहरने से
उतने ही धीरज बटोरे बैठी थी तू
हर बाधा के पार उतर आने को
इतना आदर कौन करेगा माँ
एक तेरे सिवाय यहाँ ?
पृथ्वी ने चुपके से रख दी होगी
जरूर तुम्हारे अंतस में
शीत-ताप सहने की अद्भूत कला
(जो सुख-दु:ख भरे संवेदनों के बीच
प्रकृति में अनगिन चेहरे पालती है)
पर माँ, तुम्हारी पथरायी आँखों में अब
न सागर लहराते हैं न सपने
समय की सलीब से टंगी तू सचमुच
एक जीवित तस्वीर हो गयी है
जिसकी आरी-तिरछी लकीरों में
हम भाई-बहनों के बीते दिनों के पन्ने
फड़फड़ाते हैं हमें आगाह करते कि
उस ममता को कभी
अपनी स्मृति से जुदा न करना
जिसने बचा रखी है सारी दुनिया
इस निर्मम घोर कलि में
वर्ना कौन है बचवैया
इस दुनिया में हमारा अपना
एक तेरे बिन,
कहो न माँ... ?***
आकृति के अन्दर उम्र के साथ कई रंग अंगड़ाइयां लेते हैं -
प्रेमचंद गाँधी - http://prempoet.blogspot.in/
प्रेम का अंकशास्त्र
नौ ग्रहों में सबसे चमकीले शुक्र जैसी है उसकी आभा
आवाज़ जैसे पंचम में बजती बांसुरी
तीन लोकों में सबसे अलग वह
दूसरा कोई नहीं उसके जैसा
नवचंद्रमा-सी दर्शनीय वह
लुटाती मुझ पर सृष्टि का छठा तत्व प्रेम
नौ दिन का करिश्मा नहीं वह
शाश्वत है हिमशिखरों पर बर्फ की मानिंद
सात महासागरों के जल से निखारा है
कुदरत ने उसका नव्यरूप
खत्म हो जाएं दुनिया के सातों आश्चर्य
वह लाजिमी है मेरे लिए
जिंदगी में सांस की तरह
पृथ्वी पर हवा-पानी-धूप की तरह।....
दर्द की लकीरें प्रेम से ही निकलती हैं,रिश्ता कोई भी हो...
तूलिका शर्मा - http://mankacanvas.blogspot.com/
दर्द की लकीरें
ये सड़क नहीं
धरती के सीने पर
दर्द की लकीरें हैं
जो ढूंढ रही है
दर्द का एक और सिरा.
दिन रात चलती हैं
पर न थकती हैं
न मंज़िल तक पहुँचती है
कितने ही रहबर ...रहनुमा
रौंद कर सीना इसका
निकल जाते हैं
अपनी मंज़िल को
उन्हें पहुंचाती है
उनके मुक़ाम तक...
कुछ और हमसफ़र
साथ ले चल देती है
अनंत यात्रा को.
कितने ही शहरों-गाँवों
कस्बों-कूचों का
हाथ थाम
जोड़ देती है
कुछ टूटे सिरे,
कुछ भटकी राहें,
कुछ खोये रिश्ते ....
तुम्हारे शहर की
सरहद पर जाकर
कैसे बदल जाती है यकायक ?
फ़ोर लेन और सिक्स लेन के
चमचमाते रूप से चौंधियाती
क्यूँ बदल लेती है
अपना स्वभाव ...
शायद तुम्हारे शहर को ही
भरमा लेने की आदत है !!
स्वादिष्ट व्यंजनों की कमी नहीं .... क्योंकि शब्दों के अरण्य में एक से एक जादूगर हैं
दर्द की लकीरें प्रेम से ही निकलती हैं,रिश्ता कोई भी हो...
जवाब देंहटाएंबहुत सही ...
सुन्दर रचनाएँ....
जवाब देंहटाएंआभार दी.
अनु
धन्यवाद और आभार |
जवाब देंहटाएंजो ढूंढ रही है
जवाब देंहटाएंदर्द का एक और सिरा.
दर्द की लकीरें ....
अह्ह्ह ...अनंत यात्रा की ओर ....चलते रहते है कदम .....
बहुत सुन्दर रचनायें।
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएँ सुंदर!!
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