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रविवार, 30 सितंबर 2012

गाहे गाहे इसे पढ़ा कीजे ...10




आज गाहे गाहे प्रेम को पढ़िए चंडीदत्त शुक्ल की कलम से http://chauraha1.blogspot.in/ - दिल से बेहतर कोई किताब न थी, न होगी... प्रेम सिर्फ चाँदनी नहीं,अमावस्या भी है...जेठ की दोपहरी भी,बारिश के बाद की धूप भी....हर रूप में प्रेम न हो तो थोड़ा थोड़ा जीने,थोड़ा थोड़ा मरने का एहसास कैसे होगा ! प्रेम कभी कसम,कभी आंसुओं से सराबोर सारी कसमों से दूर... प्रेम में डूब जाओ तो हर पात्र में अपनी झलक आती है . तभी तो आज भी आँखें मुस्कुराती हैं सुनकर - 'वो तेरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है,हमको अब तक आशिकी का वो ज़माना याद है' ... है न ?

प्रेम,
तुम्हारा पीछे छूटना तय ही था
शायद
तुम्हारे आने से पहले से
तुम फिसल ही जाते हो
दिल की गिरह से जब-तब
बल्कि,
जब, तब तुममें डूबे होते हैं हम।
तब, जब तुम्हारी होती है सबसे ज्यादा ज़रूरत,
तुम होते हो गैरहाज़िर
हमारी ज़िंदगी से।
और,
एक के बाद एक कर गुज़रते दिनों में
तुम हो जाते हो गुजरे दिनों को एक गैरज़रूरी-सा एहसास।
फिर,
ज्यूं ही हम निश्चिंत होकर,
कुछ दर्दभरे गीत सुनते हुए
चंद कविताएं लिखकर
कुछ ज़र्द चिट्ठियां उलटते हुए,
निपटाते रहते हैं घर के ज़रूरी कामकाज,
ऐन उन्हीं के बीच,
गहरी टीस बनकर तुम सिर उठा खड़े हो जाते हो...
क्या, यही याद दिलाने के लिए
हां, तुम मौजूद हो.
कभी नहीं गुजरे,
न ही तुम गैरज़रूरी थे।
सच है, तुम्हारा पीछे छूटना,
छूटना है बचपन की तरह ही,
जो न होकर भी हाज़िर होता है हमारे मन में सदैव।
यूं ही,
तुम भी तो अपनी छायाओं में,
हमारे होंठों और आंखों पर हरदम अट्टहास करते रहते हो,
कभी मुस्कान और आंसू बनकर,
तो कभी कटाक्ष की शक्ल में कहते हुए,
बिना प्रेम के जियोगे? जीकर दिखाओ तो जानें!..............

इतना आसान नहीं प्रेम के बगैर जीना...प्रेम अग्नि,प्रेम कुंदन,प्रेम ही है जौहरी ... प्रेम आंसू,प्रेम गंगा,प्रेम ही होती त्रिवेणी !

पंद्रह सौ साल पहले
अनजान कबीले की उस औरत ने
पहनी होगी कलाई में चूड़ी
टेराकोटा से बनी

टेराकोटा, जो होती है लाल और काली
उससे बुनीचूड़ी का एक टुकड़ा
जो न बताओ तो नहीं लगता
श्रृंगार का जरिया

वो चूड़ी पहनकर वो औरत हंसी होगी
होंठों को एक दांत से दबाकर
पर तुम्हारी तो आंख से काजल बहने लगता है
तुम थर्राए होंठों से
पूछती हो
जिन हाथों में रही होगी ये चूड़ी
उन्हें किसी ने चूमा होगा ना

तुम सिहर उठती हो ये सोचकर
वक्त में घुल गई होगी वो औरत
मिट गया होगा उसका अस्तित्व
पर सुनो...चूड़ी कहां घुली?
नहीं नायकीन मानो
मिट्टी कभी नष्ट नहीं होती
चूड़ी टुकड़ा-टुकड़ा टूटी
लेकिन खत्म नहीं हुई
तुमने ही तो मुझे बताया था वसंतलता
ऐसे ही प्रेमियों और प्रेमिकाओं के तन नष्ट हो जाते हैं
पर कहां छीजता है प्रेम?

काली बंगा से लौटते वक्त
तुम बीन लाईं कहीं से चूड़ी का वो टुकड़ा
और मुझसे पूछती रही,
क्या होता है टेराकोटा
और ये भी
पंद्रहवी सदी में किस कबीले की औरत ने पहनी होगी
टेराकोटा से बनी ये चूड़ी
मेरे पास नहीं है कोई जवाब
बस, तुम्हारी लाई चूड़ी का वो टुकड़ा रखा है मेरे पास
सदा रहेगा शायद
मैं नहीं जानता काली बंगा के बारे में
न ही उन औरतों के बारे में
बस पता है प्रेम
जो पता नहीं कहां,
पेट में, दिल में, मन में या फिर आंसुओं में
पीर पैदा करता है
यकीन मानो
वो नष्ट नहीं होता कभी....

प्रेम से सृष्टि का निर्माण हुआ,प्रेम के प्राकृत तत्व से कार्तिकेय का जन्म हुआ .... नष्ट होना प्रेम की परम्परा नहीं.

प्रेम नहीं है 99 साल की लीज 

मैं : प्रेम का क्या होगा, जब साथ नहीं रह पाएंगे
तू : चुप कर, चूम ले बस
मैं : पर कब तक
तू : एक ये पल जीवन से बड़ा नहीं है क्या?

या तो यक़ीन, या फिर...

मैं : आज फिर तू उससे मिली
तू : हां! तूने देखा!
हां : कोई बात नहीं, मुझे तुझ पर यक़ीन है
तू : यक़ीन? फिर सवाल कैसे जन्मा?

जीवन से अलग?

मैं : मेरे लिखे डायलॉग सब बोलेंगे
तू : और कहानी का क्या होगा?
मैं : कहानी से ही तो निकलेंगे...
तू : फिर अलग से क्यों लिखने पड़ेंगे?........

जब प्रेम शोखियों पर उतर आता है,तो पूरी कायनात शोख,चंचल हो जाती है - ऐसे में कुछ हटके लिखना कहाँ हो पाता है भला. कुछ यही स्थिति शुक्ल जी की है -
..............

क्या करूं? कुछ ठोस. देर तक असर करने वाला लिखा ही नहीं जा रहा बहुत दिन से...उश्च्छृंखलता स्वभाव और सृजन पर कितना गहरा असर डाल रही है...कहना मुश्किल है...ख़ैर...इस बीच कुछ-कुछ दो-चार पंक्तियों से ज्यादा नहीं लिख पाया...तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा...की तर्ज पर वही सबकुछ आपके लिए...

ये मुझे है पसंद
बचा इक इरादा है तो बस ये...तुम्हारी राह में हम फूल बनके बिछ जाएं.../ ये इंसान की सूरत भला लेके करेंगे क्या, भला हो काजल बनें और तुम्हारी आंख में रच जाएं...

एक और पसंदीदा पंक्ति
इक बात मेरी तीर सी उतर जाती है ज़िगर में... जान-ए-जां कभी प्यार का मुकम्मल फ़लसफ़ा भी याद करो / सुलगती रात के बाद सुबहा में उलझे गेसू याद करो / करो जो याद तो मेरी इरादा-ए-वफ़ा याद करो / राह-ए-मोहब्बत में कांटों की उलझनें भुला दो साथी / अब मौक़ा है जो हमारे प्यार की ज़ुबां याद करो

कभी गुजरते हुए उम्र के बागबां से....

कभी गुज़रते हुए उम्र के बागबां से, जो यादों का कोई दरख़्त टकरा जाए बांह से, तू रुकना, कुछ हंसना फिर छू लेना उसकी पत्तियां....तुझे कहां है पता, वो तो मैं ही हूं, जो उगा हूं तेरी राह में....यकीं रख, लम्हा भर की उस छुअन के लिए, मैं जीना चाहूंगा हज़ार सदियां...लेना चाहूंगा सौ-सौ जनम...आना...मेरे सुगना...आना.

नगमा और सपना
नींद भर सो लेने के बाद, जाग जाने से पहले मैंने देखा है कई बार सपना... तू गुनगुनाती रही, मैं सुनता रहा, देखते-देखते बन गया नगमा अपना....ज़िंदगी भर क्यों हम बेज़ार होते रहें, आ बढ़ें, संग चलें, देखते-देखते दुश्मन भी हो जाएगा...हां, अपना.

चेहरे-कपड़े-मुखौटे
तुम्हें चेहरे से क्या मतलब / तुम्हें कपड़ों से क्या मतलब / हमें मालूम है तुम्हारे लिए हैं ये सब बहाने भर.../ भला कहते रहो तुम औरतों को मूरख / हमें भी नज़र आता है तुम्हारी नज़र का मतलब....

सांस, दूध और पानी
पानी की बूंदों में घुला दूध का स्वाद, सांसों से फूटी इलायची जैसी ख़ुशबू...तू मिला साथी, गर्म हो गई अहसास की चाय..

इश्क..मर्ज...दवा
इश्क हो मर्ज, तो लब हैं दवा / ग़मों की क्या बिसात, न हो जाएं वो हवा! 

तुम्हीं कहो....
कभी कहते हो हमारी ज़िंदगी से रुखसत हो जाओ, कभी इकरार करते हो फर्ज-ए-मोहब्बत का...तुम्हीं में अक्स देखा है हमने सांसों की बुलंदी का, भला अख्तियार क्यों करते हो ये रास्ता अदावत का

बांकपन...
ये माना कि ख़फ़ा है तू, बिना मेरे तेरी रहगुज़र भी तो नहीं....ये ना सोचो कि ग़ुरूर में हूं मैं, मेरी जां तेरे साथ के बिन मेरा भी बसर तो नहीं...

जाम और नाम
हर सांस में तेरा नाम था, धड़कनों में सलाम था.../ जिस डगर पे तेरे पग चले, उसी राह पे पयाम था / हमें मयनशी की आदत कहां, तेरी आंख में ही जाम था / अब तू कहां और हम कहां पर इतनी तो है ज़िद बाकी बची / जब तक जिए, हम संग रहे, प्यार ही अपना काम था

अवधी में प्यार
वही ठइयां ठाड़े रहिबै बालम, जहवां तू हमइं छोड़ि गयेव है....मनवां मां उठत हइ हूक बहुत अब, सोचेव भी नाईं तू हमइं कहां छो़ड़ि गयेव है...देहियां के पीरा कइ नाहीं कउनउ इलाज भवा, करेजवा मां अगिया तू झोंकि गयेव है...अबहिंव तू फिकिर करौ, हमसे तू धाइ मिलव...अंखिया ना मूंदब, खाइब ना पीयब, नाहीं हम जीबै, नाहिन मरबै, वहीं ठइयां ठाड़े रहिबै बालम, जहवां तू हमइं छोड़ि गयेव है...

एक और अवधी रचना...ब-स्टाइल-लोकगीत
हमरे मन की चिरइया उड़ी जाय रे...फगुआ ना गावै, कजरी ना गावै, बहियां से छूटै हमैं तरसावै...यही ठइयां दगाबाज़ी किहां जाय रे...गोदिया बैठाइके भुइयां मां पटकै, मुहंवा लगाइके नैना झटके...नाहीं देखइ की जियरा झरसाइ रे...हमरे मन की चिरइया उड़ी जाय रे...

प्यार बुरा है?
माना ये संसार बुरा है...हम सबका व्यवहार बुरा है...धीरज धर के इतना सोचो...कहां हमारा प्यार बुरा है..

तुझे है वास्ता
तुझे हमसे प्यार का है वास्ता...न खुद से खुद की रक़ीब बन, जो खुद से मोहब्बत ना होगी आपको, तो कहां मिलेगा हमें भी रास्ता

जो अश्क कर पाते...
अश्क बयां कर पाते हाल-ए-दिल, तो चेहरे पे मिरे तेरी तस्वीर बनी होती / यूं न बह-बह के सूख जाने पर मज़बूर रहते, हाथों में मिलन की लकीर बनी होती

गुमां छोड़कर...
उजले जिस्म का ग़ुमां छोड़कर, स्याह आंख का अश्क बनना बेहतर....जो ज़ुदा हों, तो जाएं जान से...राह-ए-गलतफहमी पे भटकने से पेश्तर


ये भी है...अभी बाकी....

मुख़्तसर से तो मिले थे तुम, फौलाद-से जु़ड़ गए / चले थे मंदिर को जानम, क़दम तेरे दर को मुड़ गए

शेर---1
रहमत-ए-इश्क की बारिश जो कर जाओ तुम / यकीं मानों हमें हीरे भी खैरात लगने लगेंगे / और ये कहना ही क्या कि हम इश्क के ग़ुलाम हैं / तमाम सल्तनतों के ताज़ भी हमें आग लगने लगेंगे
शेर---2
सुलगती रही धूप, दिल से धुआं उठने लगा / दूरी ने यूं गाफ़िल किया-रस्ता ज़ुदा लगने लगा / यूं जाया न करो दूर तुम / हमारा आज देखो कल लगने लगा
शेर---3
बारिश हुई, नहाए रास्ते, ओस के संग मैं हूं... / बहुत झुलसा कई दिन तक, आज नशे में हूं.../ रफ़्ता-रफ़्ता दिल पे काबिज़ हुईं थी तनहाइयां / तुम मिलीं, खुशबू खिली और मैं मज़े में हूं..
शेर-4
तुम्हारी याद के नाते...तुम्हारे साथ के किस्से, न होते जो ये, तो हम भी कहां होते...
शेर-5
कहां से आते हैं उदासियों के हवाले, पता हमको नहीं सनम... इतना भर जान लो तुम, जो बिछड़े तो बाकी बचेगा ग़म
शेर-6
सोचते थे ज़ुदा होके भी जी लेंगे हम, आलम ये है कि सांसों में इक क़तरा हवा तक ना बची / जो बिछड़े दो घड़ी के लिए बस यूं ही बेसबब, ज़िंदगी के लिए देखो कोई आरज़ू ही ना बची
शेर-7
हम इतनी मुद्दत बाद मिले...फिर भी क्यों बने मन में गिले...हंसी की खनक से भर जाते सारे जख़्म...पर तू तो साथी अब तक होंठ सिले...
शेर-8
तुझे खुद से ज्यादा ही चाहा है हरदम...कैसे उपजे फिर भी बोलो मन में भरम
शेर-9
खूबसूरत हो तुम, तुम हो नादां बहुत / उड़ती रहो पर संभलकर उड़ो/ ज़िंदगी है कहां आसां बहुत ........... क्रमशः 

3 टिप्‍पणियां:

  1. आनंदित हुआ इस बेहतरीन माथापच्ची से !

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  2. आभार रश्मि जी....
    चौराहे से अकसर गुज़र होती है....
    आज आपकी उंगलियां थामे चली बस.

    सादर
    अनु

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  3. तुम्हारी याद के नाते...तुम्हारे साथ के किस्से, न होते जो ये, तो हम भी कहां होते...
    इस उत्‍कृष्‍ट प्रस्‍तुति के लिए आभार

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